ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् । उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां॑सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । चि॒त् । मर्तः॑ । द्रवि॑णम् । म॒म॒न्या॒त् । ऋ॒तस्य॑ । प॒था । न॒म॒सा । वि॒वा॒से॒त् । उ॒त । स्वेन॑ । क्रतु॑ना । सम् । व॒दे॒त॒ । श्रेयां॑सम् । दक्ष॑म् । मन॑सा । ज॒गृ॒भ्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि चिन्मर्तो द्रविणं ममन्यादृतस्य पथा नमसा विवासेत् । उत स्वेन क्रतुना सं वदेत श्रेयांसं दक्षं मनसा जगृभ्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । चित् । मर्तः । द्रविणम् । ममन्यात् । ऋतस्य । पथा । नमसा । विवासेत् । उत । स्वेन । क्रतुना । सम् । वदेत । श्रेयांसम् । दक्षम् । मनसा । जगृभ्यात् ॥ १०.३१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञार्थ - धन
पदार्थ -
[१] (मर्तः) = मनुष्य (परिचित्) = सब ओर से ही, अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ से (द्रविणम्) = धन को (ममन्यात्) = [कामयेत्] चाहे । धन की कामना तो करे, परन्तु (ऋतस्य पथा) = ऋत के मार्ग से ही धन को कमाने की अभिलाषा करे। धन को कमाता हुआ (नमसा) = नमन के द्वारा (विवासेत्) = उस प्रभु की परिचर्या करे। यह प्रभु स्मरण उसे अन्याय मार्ग से धन कमाने से रोकेगा। 'अग्ने नय सुपथा राये, भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम'। [२] (उत) = और इस प्रकार प्रभु स्मरण के साथ न्याय्य मार्ग से धनों को कमाता हुआ यह व्यक्ति (स्वेन क्रतुना) = अपने यज्ञों के साथ (संवदेत) = संवादवाला हो । अपने जीवन को यह यज्ञमय बनाये। धनों का विनियोग यह यज्ञों में ही करे। [३] इन यज्ञों को करता हुआ यह (मनसा) = मन से (श्रेयांसम्) = अतिशयेन कल्याणकर (दक्षम्) = प्रवृद्ध उस प्रभु को (जगृभ्यात्) = ग्रहण करे । यज्ञों को करते हुए, मन से प्रभु स्मरण करना इसलिए आवश्यक है कि हम उन यज्ञों के अहंकारवाले न हो जाएँ। यह प्रभु स्मरण हमें कल्याण को प्राप्त करानेवाला होगा तथा सब प्रकार से हमारी वृद्धि का कारण बनेगा, श्रेयान् = [दक्ष] ।
भावार्थ - भावार्थ- हम धन कमायें। धनों का विनियोग यज्ञों में करें। उन यज्ञों को प्रभु कृपा से होता हुआ जानकर अहंकारवाले न हों।
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