ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
ऋषिः - कवष ऐलूषः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अधा॑यि धी॒तिरस॑सृग्र॒मंशा॑स्ती॒र्थे न द॒स्ममुप॑ य॒न्त्यूमा॑: । अ॒भ्या॑नश्म सुवि॒तस्य॑ शू॒षं नवे॑दसो अ॒मृता॑नामभूम ॥
स्वर सहित पद पाठअधा॑यि । धी॒तिः । अस॑सृग्रम् । अंशाः॑ । ती॒र्थे । न । द॒स्मम् । उप॑ । य॒न्ति॒ । ऊमाः॑ । अ॒भि । आ॒न॒श्म॒ । सु॒वि॒तस्य॑ । शू॒षम् । नवे॑दसः । अ॒मृता॑नाम् । अ॒भू॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधायि धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे न दस्ममुप यन्त्यूमा: । अभ्यानश्म सुवितस्य शूषं नवेदसो अमृतानामभूम ॥
स्वर रहित पद पाठअधायि । धीतिः । अससृग्रम् । अंशाः । तीर्थे । न । दस्मम् । उप । यन्ति । ऊमाः । अभि । आनश्म । सुवितस्य । शूषम् । नवेदसः । अमृतानाम् । अभूम ॥ १०.३१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
विषय - ध्यान व स्वास्थ्य
पदार्थ -
[१] (धीतिः) = ध्यान (अधायि) = धारण किया गया, अर्थात् प्रभु ध्यान को हमने जीवन का एक नैत्यिक कार्य बना लिया। [२] और (तीर्थे) = तीर्थों में, पात्रों में (अंशा:) = अंश (अससृग्रम्) = बनाये गये, अर्थात् हमने उपार्जित धन में से पात्रों में, योग्य व्यक्तियों में धनांश को प्राप्त कराया । यही धनों का यज्ञों में विनियोग है। [३] इस प्रकार करने पर (ऊमाः) = [ अवितारः ] पात्रों में दिये गये ये धनांश हमारे रक्षक होते हैं। ये रक्षक धनांश (दस्मम्) = विनाश को न उपयन्ति नहीं प्राप्त होते हैं, अर्थात् यह धनांशों का यज्ञों में विनियोग सदा चलता रहता है, इसमें कभी विच्छेद नहीं होता । [४] इसके परिणामरूप हम (सुवितस्य) = उत्तम आचरण के (शूषम्) = सुख को (अभ्यानश्म) = प्राप्त करनेवाले हों। यज्ञ की वृत्ति हमें दुष्टाचरण से बचाती है और परिणामतः दुःखों से छुड़ाती है । [५] सुवित के सुख को अनुभव करते हुए हम (अमृतानाम्) = नीरोगताओं के (नवेदसः) = [न वेत्तार:, वेत्तार एव] जाननेवाले अभूम हों। हम जीवन में सदा स्वस्थ हों ।
भावार्थ - भावार्थ- हमारा जीवन प्रभु ध्यान से समवेत हो, हम पात्रों में धनों के देनेवाले हों, ये धनांशों के दान सतत चलते रहें, सदाचरण के सुख का हम अनुभव करें और पूर्ण नीरोग हों ।
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