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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नित्य॑श्चाकन्या॒त्स्वप॑ति॒र्दमू॑ना॒ यस्मा॑ उ दे॒वः स॑वि॒ता ज॒जान॑ । भगो॑ वा॒ गोभि॑रर्य॒मेम॑नज्या॒त्सो अ॑स्मै॒ चारु॑श्छदयदु॒त स्या॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नित्यः॑ । चा॒क॒न्या॒त् । स्वऽप॑तिः । दमू॑नाः । यस्मै॑ । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । ज॒जान॑ । भगः॑ । वा॒ । गोभिः॑ । अ॒र्य॒मा । ई॒म् । अ॒न॒ज्या॒त् । सः । अ॒स्मै॒ । चारुः॑ । छ॒द॒य॒त् । उ॒त । स्या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नित्यश्चाकन्यात्स्वपतिर्दमूना यस्मा उ देवः सविता जजान । भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नित्यः । चाकन्यात् । स्वऽपतिः । दमूनाः । यस्मै । ऊँ इति । देवः । सविता । जजान । भगः । वा । गोभिः । अर्यमा । ईम् । अनज्यात् । सः । अस्मै । चारुः । छदयत् । उत । स्यात् ॥ १०.३१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] मनुष्य को चाहिये कि वह (नित्यः) = सदा (चाकन्यात्) = उस प्रभु की कामना करे । प्रभु प्राप्ति के लिये कामना ही सर्वोत्तम कामना है। इस कामना की पूर्ति के लिये (स्वपतिः) = वह अपना पति बने, अपना रक्षण करनेवाला हो । विषय-वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचायें । (दमूना:) = [दान्तमनाः] अपने मन का दमन करनेवाला हो । दान्त मन ही हमारा बन्धु है, अजित मन तो हमारा नाश करनेवाला होता है। 'आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः येनात्मैवात्मना जितः, अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्' । [२] यह स्वपति व दमूना वह व्यक्ति होता है (यस्मै) = जिसके लिये (उ) = निश्चय से (सविता देवः) = वह प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (जजान) = अपने को प्रकट करता है। (वा) = और (भगः) = ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवता (गोभिः) = गौ इत्यादि पशुओं से (एनम्) = इसको (अनज्यात्) = अलंकृत करता है, अर्थात् इसके पास गवादि धन की किसी प्रकार से कमी नहीं होती । (अर्यमा) = [अर्यमेति तमाहुर्योददाति] दान की अधिष्ठात्री देवता भी (ईम्) = निश्चय से (एनम्) = इसको (अनज्यात्) = अलंकृत करती है, अर्थात् यह धनों का खूब दान देनेवाला बनता है। [३] अब (सः) = वह (चारुः) = सुन्दर ही सुन्दर प्रभु (अस्मै) = इसके लिये (द्वदयत्) = शरण को देनेवाला (उत) = निश्चय से (स्यात्) = होता है।

    भावार्थ - भावार्थ- जब मनुष्य प्रभु की कामनावाला होकर आत्मशासन करता है तो प्रभु उसके लिये प्रकाशित होते हैं, इसे आवश्यक धन व दान की वृत्ति प्राप्त कराते हैं और अन्ततः यह उस सुन्दरतम प्रभु की शरण में होता है।

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