ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
नित्य॑श्चाकन्या॒त्स्वप॑ति॒र्दमू॑ना॒ यस्मा॑ उ दे॒वः स॑वि॒ता ज॒जान॑ । भगो॑ वा॒ गोभि॑रर्य॒मेम॑नज्या॒त्सो अ॑स्मै॒ चारु॑श्छदयदु॒त स्या॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठनित्यः॑ । चा॒क॒न्या॒त् । स्वऽप॑तिः । दमू॑नाः । यस्मै॑ । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वः । स॒वि॒ता । ज॒जान॑ । भगः॑ । वा॒ । गोभिः॑ । अ॒र्य॒मा । ई॒म् । अ॒न॒ज्या॒त् । सः । अ॒स्मै॒ । चारुः॑ । छ॒द॒य॒त् । उ॒त । स्या॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नित्यश्चाकन्यात्स्वपतिर्दमूना यस्मा उ देवः सविता जजान । भगो वा गोभिरर्यमेमनज्यात्सो अस्मै चारुश्छदयदुत स्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठनित्यः । चाकन्यात् । स्वऽपतिः । दमूनाः । यस्मै । ऊँ इति । देवः । सविता । जजान । भगः । वा । गोभिः । अर्यमा । ईम् । अनज्यात् । सः । अस्मै । चारुः । छदयत् । उत । स्यात् ॥ १०.३१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 4
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नित्यः-स्वपतिः-दमूनाः) सदा वर्त्तमान सुख धन का स्वामी अपने सुख धन को देने का इच्छुक (सविता देवः-यस्मै-उ जजान) उपासक परमात्मा देव जिस उपासक के लिये कर्म के प्रतिकार में उस सुख फल को उत्पन्न करता है-प्रसिद्ध करता है। (सः अर्यमा चाकन्यात्) वह दाता परमात्मा उसे देना चाहता है, अतः (ईम्-अनज्यात्) उसे व्यक्त करता है-पकाता है (सः-अस्मै) वह इसके लिये (चारुः-छदयत्) कल्याणकारी होता हुआ सुरक्षित रखता है (उत) और (गोभिः-वा भगः स्यात्) स्तुतियों द्वारा सुख ऐश्वर्य का देनेवाला होता है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा कर्मफलों का दाता है, स्तुतियों के द्वारा वह उपासक को उसके कमनीय सुखों को देनेवाला है ॥४॥
विषय
आत्मशासन
पदार्थ
[१] मनुष्य को चाहिये कि वह (नित्यः) = सदा (चाकन्यात्) = उस प्रभु की कामना करे । प्रभु प्राप्ति के लिये कामना ही सर्वोत्तम कामना है। इस कामना की पूर्ति के लिये (स्वपतिः) = वह अपना पति बने, अपना रक्षण करनेवाला हो । विषय-वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचायें । (दमूना:) = [दान्तमनाः] अपने मन का दमन करनेवाला हो । दान्त मन ही हमारा बन्धु है, अजित मन तो हमारा नाश करनेवाला होता है। 'आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः येनात्मैवात्मना जितः, अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्' । [२] यह स्वपति व दमूना वह व्यक्ति होता है (यस्मै) = जिसके लिये (उ) = निश्चय से (सविता देवः) = वह प्रेरक प्रकाशमय प्रभु (जजान) = अपने को प्रकट करता है। (वा) = और (भगः) = ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवता (गोभिः) = गौ इत्यादि पशुओं से (एनम्) = इसको (अनज्यात्) = अलंकृत करता है, अर्थात् इसके पास गवादि धन की किसी प्रकार से कमी नहीं होती । (अर्यमा) = [अर्यमेति तमाहुर्योददाति] दान की अधिष्ठात्री देवता भी (ईम्) = निश्चय से (एनम्) = इसको (अनज्यात्) = अलंकृत करती है, अर्थात् यह धनों का खूब दान देनेवाला बनता है। [३] अब (सः) = वह (चारुः) = सुन्दर ही सुन्दर प्रभु (अस्मै) = इसके लिये (द्वदयत्) = शरण को देनेवाला (उत) = निश्चय से (स्यात्) = होता है।
भावार्थ
भावार्थ- जब मनुष्य प्रभु की कामनावाला होकर आत्मशासन करता है तो प्रभु उसके लिये प्रकाशित होते हैं, इसे आवश्यक धन व दान की वृत्ति प्राप्त कराते हैं और अन्ततः यह उस सुन्दरतम प्रभु की शरण में होता है।
विषय
जीवार्थ जगत्-सर्ग, ईश्वर का जीवोपकारार्थ ज्ञान-प्रकाश।
भावार्थ
(यस्मै) जिस जीवगण के उपकार के लिये (देवः सविता) दानशील, ज्योतिर्मय, सूर्यवत् तेजस्वी, सर्व जगत् का उत्पादक प्रभु (जजान) जगत् के नाना पदार्थ उत्पन्न करता है (स्व-पतिः) समस्त धनों और स्वकीयों का पालक (दमूनाः) दमनशील, दान्तचित्त, (नित्यः) नित्य सनातन प्रभु (अस्मै चाकन्यात्) उसे सदा चाहता है। (सः) वह (भगः) सर्वैश्वर्यवान् प्रभु (अर्यमा) न्यायकारी होकर (ईम्) इसके प्रति (गोभिः) वेद वाणियों से (अनज्यात्) सब ज्ञान प्रकाशित करता है। (उत) और (अस्मै) उसको (चारु) अच्छी प्रकार (छदयत् उत स्यात्) आच्छादन करने वाला, रक्षक भी होता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:-१, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७, ११ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नित्यः-स्वपतिः-दमूनाः) शाश्वतिकः सदा वर्त्तमानः सुखस्य स्वामी दानमनाः “दमूना दानमनाः” [निरु०४।५] (यस्मै-उ सविता देवः-जजान) यस्मै-उपासकाय स्वकर्मफलं दातुमुत्पादकः परमात्मदेवः-तत्कर्मफलमुत्पादयति (अर्यमा) स फलस्य दाता (चाकन्यात्) कामयेत् (ईम्-अनज्यात्) व्यक्तं करोति (सः-अस्मै) सोऽस्यै जनाय (चारुः-छदयत्) शोभनभूतो रक्षति (उत) अपि (गोभिः-वा भगः स्यात्) स्तुतिभिश्च भगप्रदो भवेत् ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the lord eternal, master of the world’s wealth of Prakrti, generous and potent, love to give and bless humanity for whom Savita, lord creator and generator provides all things of existence, and may Bhaga, lord of universal power and prosperity, and Aryama, lord of justice and dispensation, enlighten him with the word of knowledge, and may the lord of love, beauty and bounty, provide man the sweet shade of protection for advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा कर्मफलदाता आहे. स्तुतीद्वारे तो उपासकाला कमनीय सुख देणारा असतो. ॥४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal