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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त कण्वं॑ नृ॒षद॑: पु॒त्रमा॑हुरु॒त श्या॒वो धन॒माद॑त्त वा॒जी । प्र कृ॒ष्णाय॒ रुश॑दपिन्व॒तोध॑ॠ॒तमत्र॒ नकि॑रस्मा अपीपेत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । कण्व॑म् । नृ॒ऽसदः॑ । पु॒त्रम् । आ॒हुः॒ । उ॒त । श्या॒वः । धन॑म् । आ । अ॒द॒त्त॒ । वा॒जी । प्र । कृ॒ष्णाय॑ । रुश॑त् । अ॒पि॒न्व॒त॒ । ऊधः॑ । ऋ॒तम् । अत्र॑ । नकिः॑ । अ॒स्मै॒ । अ॒पी॒पे॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत कण्वं नृषद: पुत्रमाहुरुत श्यावो धनमादत्त वाजी । प्र कृष्णाय रुशदपिन्वतोधॠतमत्र नकिरस्मा अपीपेत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । कण्वम् । नृऽसदः । पुत्रम् । आहुः । उत । श्यावः । धनम् । आ । अदत्त । वाजी । प्र । कृष्णाय । रुशत् । अपिन्वत । ऊधः । ऋतम् । अत्र । नकिः । अस्मै । अपीपेत् ॥ १०.३१.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (कण्वम्-उत नृषदः पुत्रम्-आहुः) मेधावी उपासक को प्राणस्वरूप परमात्मा का पुत्र कहते हैं (उत) और (श्यावः-वाजी धनम्-आ-अदत्त) गतिशील ज्ञानी बलवान् उपासक परमात्मा के आनन्दधन को प्राप्त करते हैं (कृष्णाय रुशत्-ऊधः प्र अपिन्वत) परमात्मगुणों को अपने अन्दर आकर्षित करनेवाले उपासक के लिये निज आनन्द रस को सींचता है (उत) और (अत्र ऋतं नकिः-अस्मै-अपीपेत्) इस संसार में ज्ञान या अमृत को इस उपासक के लिये परमात्मा से भिन्न कोई भी नहीं बढ़ाता है ॥११॥

    भावार्थ

    ज्ञानी उपासक परमात्मा के पुत्रसमान होता है। संसार में जैसे पिता अपनी अमूल्य सम्पति पुत्र को दे देता है, ऐसे ही परमात्मा भी अपने ज्ञान अमृत आनन्द को ज्ञानी उपासक के लिये दे देता है ॥११॥

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    विषय

    नृषद् पुत्र 'कण्व'

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (कण्वम्) = कण-कण करके उत्तमता का संचय करनेवाले को, अतएव मेधावी को (नृषदः) = सब मनुष्यों में निवास करनेवाले प्रभु का (पुत्रम्) = पुत्र (आहुः) = कहते हैं । प्रभु 'नृषद्' हैं, यह मधुरवाणी बोलनेवाला, आत्मरक्षण करनेवाला व्यक्ति प्रभु का सच्चा पुत्र है । [२] (उत) = और (श्यावः) = [श्यैङ्गतौ ] खूब क्रियामय जीवनवाला यह (वाजी) = शक्तिशाली बनता है और (धनम्) = धन को (आदत्त) = प्राप्त करता है । क्रियाशीलता धन प्राप्ति का साधन होती है और शरीर के अंगों को सबल बनाये रखती है। [३] (ऊधः) = ऊधस्, अर्थात् ऊधः स्थानीय दूध (कृष्णाय) = मन को विषयों से वापिस खैंच [आकृष्ट] करके, संसार के रंग में न रंगे जानेवाले के लिये (रुशत्) = देदीप्यमान रूप को (प्र अपिन्वत) = प्रकर्षेण सिक्त करता है। दूध का प्रयोग तथा विषयों में अनासक्ति मनुष्य को दीप्त रूप प्राप्त कराता है। [४] (अत्र) = इस जीवन में (ऋतम्) = ऋत, सत्य व यज्ञ (अस्मै) = इस व्यक्ति के लिये (नकिः अपीपेत्) = क्या वर्धन नहीं करता ? ऋत के द्वारा इसके जीवन में सब आवश्यक वस्तुओं का आप्यायन होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मेधावी पुरुष प्रभु का सच्चा पुत्र होता है। गतिशीलता से यह धन व शक्ति का संग्रह करता है। दूध का प्रयोग इसे दीप्तरूप देता है । सत्य व यज्ञ इसे सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त कराते हैं। सूक्त के प्रारम्भ में प्रार्थना है कि हमें देवों की मैत्री प्राप्त हो। [१] यज्ञार्थ हम धनों का संग्रह करें, [२] हमारे जीवनों में ध्यान व स्वास्थ्य हो, [३] हम आत्मशासन करनेवाले हों, [४] हमें शान्तिकर शक्तियों की प्राप्ति हो, [५] सुमति बनी रहे, [६] प्रभु को हम उपास्य व भव- बन्धनों का काटनेवाला जानें, [७] हमारे जीवन पवित्र हों, [८] यह जीवन की पवित्रता 'अत्युष्णता, अतिवृष्टि, अग्रिदाह' आदि आपत्तियों से बचायेगी, [९] मधुर जीवन के होने पर वन्ध्यात्व विनष्ट हो जाएगा, [१०] हम उस अन्तःस्थित प्रभु के सच्चे पुत्र होंगे, [११] अच्छे से अच्छे मार्ग की ओर हम बढ़ें।

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    विषय

    प्रभु का उत्तम स्वामित्व।

    भावार्थ

    (उत) और (कण्वं) तेजस्वी, विद्वान् पुरुष को (नृसदः) मनुष्यों के ऊपर विराजने वाले वा मनुष्यों से अधिष्ठित राज्य का (पुत्रम् आहुः) पुत्र के समान, बहुतों का रक्षक, और उत्तराधिकारी कहा है। (उत) और (श्यावः) शक्तिशाली (वाजी) ऐश्वर्यवान् ज्ञानी पुरुष ही (धनम् आदत) धन प्राप्त करता है। (कृष्णाय) शत्रुओं के नाशक और प्रजाओं के चित्ताकर्षक जन के लिये ही (रुशत् उधः) उज्ज्वल आकाशवत् प्रभु (ऋतम् अपिन्वत्) सत्य ज्ञान और न्याय की वृष्टि करता है, और (अत्र) इस लोक में (अस्मै) उसके (ऋतम्) धन वा तेज को (नकिः अपीपेत्) कोई नष्ट नहीं करता। इत्यष्टाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:-१, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७, ११ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (कण्वम्-उत नृषदः पुत्रम्-आहुः) उपासकं मेधाविनं “कण्वः मेधाविनाम” [निघं०३।१५] प्राणस्वरूपस्य परमात्मनः पुत्रं कथयन्ति “प्राणो वै नृषत्” [श०६।७।३।१२] (उत) अपि (श्यावः वाजी धनम्-आ-अदत्त) गतिशीलो ज्ञानी बलवान्-उपासकः परमात्मन आनन्दधनं प्राप्नोति (कृष्णाय रुशत्-ऊधः प्र-अपिन्वत) यः परमात्मगुणं कर्षयति तस्मै परमात्मा प्रकाशरूपो निजानन्दरसं पूर्णं स्वरूपं सिञ्चति (उत) अपि (अत्र-ऋतं नकिः-अस्मै-अपीपेत्) अत्र संसारे ज्ञानममृतं वा कश्चनापि न खल्वस्मै-उपासकाय परमात्मनो भिन्नः प्रवर्धयेत् ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And man, the intelligent, they call the child of divine energy. The vibrant, the wise and bold achieve the wealth of life and divinity, and for such as draw the attention and love of divinity, the lord opens his treasure hold of joy and blesses them. None other than divinity can bless humanity with joy and ultimate fulfilment.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्ञानी उपासक परमेश्वराच्या पुत्राप्रमाणे असतो. जगात जसा पिता आपली अमूल्य संपत्ती पुत्राला देतो, तसेच परमात्माही आपले ज्ञानामृत व आनंद ज्ञानी उपासकाला देतो. ॥११॥

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