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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्ते॒गो न क्षामत्ये॑ति पृ॒थ्वीं मिहं॒ न वातो॒ वि ह॑ वाति॒ भूम॑ । मि॒त्रो यत्र॒ वरु॑णो अ॒ज्यमा॑नो॒ऽग्निर्वने॒ न व्यसृ॑ष्ट॒ शोक॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्ते॒गः । न । क्षम् । अति॑ । ए॒ति॒ । पृ॒थ्वीम् । मिह॑म् । न । वातः॑ । वि । ह॒ । वाति॑ । भूम॑ । मि॒त्रः । यत्र॑ । वरु॑णः । अ॒ज्यमा॑नः । अ॒ग्निः । वने॑ । न । वि । असृ॑ष्ट । शोक॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तेगो न क्षामत्येति पृथ्वीं मिहं न वातो वि ह वाति भूम । मित्रो यत्र वरुणो अज्यमानोऽग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तेगः । न । क्षम् । अति । एति । पृथ्वीम् । मिहम् । न । वातः । वि । ह । वाति । भूम । मित्रः । यत्र । वरुणः । अज्यमानः । अग्निः । वने । न । वि । असृष्ट । शोकम् ॥ १०.३१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (स्तेगः-न पृथ्वीम्-अति एति) किरणसमूहवान् सूर्य के समान परमात्मा फैली हुई सृष्टि के पार तक चला जाता है। सारी सृष्टि इसके अन्दर रहती है। (वातः-न मिहं ह भूम वि वाति) वेगवान् वायु जैसे बरसनेवाले मेघ को बहुत स्थानों पर विविधरूप से फेंक देता है, वर्षा देता है, वैसे ही परमात्मा विविध सृष्टि को फैला देता है (यत्र) जिसके आश्रय पर (मित्रः) विद्युत् का प्रक्षेपणवेग तथा (वरुणः) विद्युत् का आकर्षणवेग और (अज्यमानः-अग्निः) व्यक्त हुआ-प्रज्वलित होता हुआ अग्नि (वने न शोकं व्यसृष्ट) समूह में जैसे अपने ज्वलन-तेज को छोड़ कर प्रकाशित करता है, इसी भाँति परमात्मा अपने तेज से जगत् को प्रकाशित करता है ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा समस्त फैली हुई सृष्टि के अन्दर और बाहर भी है। सारे पृथ्वी आदि पिण्डों को दूर-दूर तक बिखेरे हुए है। सब उस परमात्मा के आश्रय पर विद्युत्, अग्नि आदि पदार्थ हैं। अपने प्रकाश से वह संसार को प्रकाशित कर रहा है ॥९॥

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    विषय

    आधिदैविक आपत्तियों का दूरीकरण

    पदार्थ

    [१] पिछले मन्त्र के अनुसार जीवन के पवित्र होने पर (स्तेगः) = सूर्यरश्मियों का (संघात क्षाम्) = इस निवास के योग्य (भूमिम्) = पृथ्वी को (न अति एति) = अतिशयेन प्राप्त नहीं होता, अर्थात् सूर्य की प्रचण्ड रश्मियों से अत्युष्णता होकर यह पृथ्वी निवास के अयोग्य नहीं हो जाती । अत्युष्णता व अतिशीत रूप आधिदैविक आपत्तियाँ मनुष्य को नहीं सताती । [२] (वातः) = वर्षा को लानेवाले वायु में (मिहम्) = वर्षा को भूम इस पृथ्वी पर (ह) = निश्चय से (न विवाति) = अतिशयेन नहीं प्राप्त कराती। वर्षा, मर्यादितरूप में होकर, अन्नवृद्धि व रोगाभाव का कारण बनती है। अतिवृष्टि व अनावृष्टिरूप आधिदैविक आपत्तियों से हम बचे रहते हैं। [३] (अग्निः) = आग (वने) = वनों में (शोकम्) = अपनी दीप्ति को न व्यसृष्ट नहीं विसृष्ट करती, अर्थात् वनों में आगें नहीं लगती रहतीं। वन राष्ट्र के महान् धन हैं, अग्नि इनका विनाश नहीं कर देती। [४] 'आगे लगना' स्वयं एक आधिदैविक आपत्ति है। यह आधिदैविक आपत्ति भी उस स्थान में नहीं आती यत्र जहाँ कि (मित्रः) = स्नेह की देवता व (वरुणः) = निर्देषता की देवता (अज्यमानः) = विशेषरूप से व्यक्त होती है । जहाँ लोग परस्पर प्रेम व द्वेष के अभाव के साथ वर्तते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रेम व निर्देषता का राज्य होने पर अत्युष्णता, अतिवृष्टि व अग्निदाह आदि आधिदैविक आपत्तियों का कष्ट नहीं होता ।

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    विषय

    सूर्य और वृष्टि के दृष्टान्त से प्रभु के जगत्सर्जन का वर्णन। अग्नि से प्रकाशवत् उसका प्रकृति से संसार का रचना।

    भावार्थ

    (स्तेगः न) सूर्य जिस प्रकार (पृथ्वीं क्षां अति एति) विस्तृत भूमि को अतिक्रमण कर जाता है, (वातः न) और वायु जिस प्रकार (अति भूम) बहुत अधिक (मिहं वि वाति) वृष्टि को विविध प्रकार से लाता है। उसी प्रकार (स्तेगः) समस्त प्रकृति के परमाणु आदि का संघात करने वाला ईश्वर भी इस (पृथ्वीम्) अति विस्तृत (क्षाम् अति एति) सर्व निवास योग्य मूल प्रकृति से कहीं बढ़ कर है और इसे पार करके बैठा है। और वह (वातः) सर्वसंचालक प्रभु जीवगण पर (मिहं) नाना सुख-वृष्टि करता वा नाना जगत् का उत्पादक वीर्य-निषेक भी बहुत २ करता है, उसके बल से अनेक २ ब्रह्माण्डों में सृष्टि उत्पन्न होती है। (यत्र) जिसके आश्रय में (अज्यमानः) देदीप्यमान (मित्रः) जलों का स्वामी सूर्य वा दिन और (वरुणः) सूर्य द्वारा प्रकाशमान रात्रिकाल है, और (वनेन) वन में या काष्ठ में जिस प्रकार (अग्निः शोकं वि असृष्ट) अपने तेज को नाना प्रकार से प्रकट करता है उसी प्रकार वह परमेश्वर भी (अग्निः) तेजोमय, व्यापक होकर (वने) नाना रूपों में विभक्त इस जगत् वा मूल कारण प्रकृति तत्त्व में अपने (शोकम्) तेजोमय वीर्य को (वि असृष्ट) विविध प्रकार से त्यागता और विविध सृष्टियां उत्पन्नः करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:-१, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७, ११ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (स्तेगः न पृथ्वीम्-अत्येति) रश्मिसंघाती सूर्यः-इव “स्त्यै ष्ट्यै संघाते” [भ्वादि०] परमात्मा प्रथितां सृष्टिमतिक्राम्यति तदन्तरे सर्वा सृष्टिः (वातः न मिहं ह भूम वि वाति) तीव्रवायुर्यथा मेहसमर्थं मेघं खलु बहुत्र विविधं प्रेरयति तद्वत् परमात्मा सृष्टिं विविधं प्रक्षिपति (यत्र) यस्मिन्-यस्याश्रये (मित्रः) विद्युतः प्रक्षेपणवेगः (वरुणः) विद्युत आकर्षणवेगश्च वर्त्तेते तथा (अज्यमानः-अग्निः) व्यज्यमानो व्यक्तीभवन्-अग्निः (वने-न शोकं व्यसृष्ट) वृक्षसमूहे स्वज्वलनं विसृज्य प्रकाशयति तद्वत् परमात्मा सर्वं जगत् स्वप्रकाशेन प्रकाशयति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As the sun lights up and transcends the earth, as the wind shakes the cloud of life showers and passes, so does he pervade and transcend the heaven and earth, so does he move the universe to creative activity. Where Mitra, the sun, and Varuna, the moon, i.e., the couple— prana and apana, heat and water, sun and air, sun and moon, energised and impassioned, create and release life energy, heat and desire, there Agni releases the life of life as fire releases heat and vests it in the wood.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण विस्तृत सृष्टीच्या आतबाहेरही आहे. त्याने सर्व पृथ्वी इत्यादी पिंडांना सर्वत्र पसरविलेले आहेत. त्या परमात्म्याच्या आश्रयाने विद्युत अग्नी इत्यादी पदार्थ असतात. आपल्या प्रकाशाने तो जगाला प्रकाशित करतो. ॥९॥

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