ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 31/ मन्त्र 3
ऋषिः - कवष ऐलूषः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अधा॑यि धी॒तिरस॑सृग्र॒मंशा॑स्ती॒र्थे न द॒स्ममुप॑ य॒न्त्यूमा॑: । अ॒भ्या॑नश्म सुवि॒तस्य॑ शू॒षं नवे॑दसो अ॒मृता॑नामभूम ॥
स्वर सहित पद पाठअधा॑यि । धी॒तिः । अस॑सृग्रम् । अंशाः॑ । ती॒र्थे । न । द॒स्मम् । उप॑ । य॒न्ति॒ । ऊमाः॑ । अ॒भि । आ॒न॒श्म॒ । सु॒वि॒तस्य॑ । शू॒षम् । नवे॑दसः । अ॒मृता॑नाम् । अ॒भू॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधायि धीतिरससृग्रमंशास्तीर्थे न दस्ममुप यन्त्यूमा: । अभ्यानश्म सुवितस्य शूषं नवेदसो अमृतानामभूम ॥
स्वर रहित पद पाठअधायि । धीतिः । अससृग्रम् । अंशाः । तीर्थे । न । दस्मम् । उप । यन्ति । ऊमाः । अभि । आनश्म । सुवितस्य । शूषम् । नवेदसः । अमृतानाम् । अभूम ॥ १०.३१.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(धीतिः-अधायि) योगप्रज्ञा-योगबुद्धि धारण की जाती है (न-अंशाः-ऊमाः) तो तब ही ध्यान के प्रवाह उपासक के रक्षा करनेवाले हो जाते हैं, जो कि (तीर्थे) संसारसागर से तराने के निमित्त (अससृग्रं दस्मम्-उप यन्ति) अपूर्व अध्यात्म जन्म दर्शनीय को प्राप्त कराते हैं (सुवितस्य शूषम्-अभि आनश्म) शोभनरूप परमात्मा के सुख को हम प्राप्त होवें (नवेदसः-अमृतानाम्-अभूम) हम अवश्य ज्ञानवान् हुए मुक्तों में हो जावें, मुक्त हो जावें ॥३॥
भावार्थ
योगबुद्धि प्राप्त हो जाने पर ध्यान के प्रवाह योगी को संसारसागर से तारनेवाले बन जाते हैं और उसका अपूर्व अध्यात्म जन्म होकर वह मुक्ति का अधिकारी बन जाता है ॥३॥
विषय
ध्यान व स्वास्थ्य
पदार्थ
[१] (धीतिः) = ध्यान (अधायि) = धारण किया गया, अर्थात् प्रभु ध्यान को हमने जीवन का एक नैत्यिक कार्य बना लिया। [२] और (तीर्थे) = तीर्थों में, पात्रों में (अंशा:) = अंश (अससृग्रम्) = बनाये गये, अर्थात् हमने उपार्जित धन में से पात्रों में, योग्य व्यक्तियों में धनांश को प्राप्त कराया । यही धनों का यज्ञों में विनियोग है। [३] इस प्रकार करने पर (ऊमाः) = [ अवितारः ] पात्रों में दिये गये ये धनांश हमारे रक्षक होते हैं। ये रक्षक धनांश (दस्मम्) = विनाश को न उपयन्ति नहीं प्राप्त होते हैं, अर्थात् यह धनांशों का यज्ञों में विनियोग सदा चलता रहता है, इसमें कभी विच्छेद नहीं होता । [४] इसके परिणामरूप हम (सुवितस्य) = उत्तम आचरण के (शूषम्) = सुख को (अभ्यानश्म) = प्राप्त करनेवाले हों। यज्ञ की वृत्ति हमें दुष्टाचरण से बचाती है और परिणामतः दुःखों से छुड़ाती है । [५] सुवित के सुख को अनुभव करते हुए हम (अमृतानाम्) = नीरोगताओं के (नवेदसः) = [न वेत्तार:, वेत्तार एव] जाननेवाले अभूम हों। हम जीवन में सदा स्वस्थ हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन प्रभु ध्यान से समवेत हो, हम पात्रों में धनों के देनेवाले हों, ये धनांशों के दान सतत चलते रहें, सदाचरण के सुख का हम अनुभव करें और पूर्ण नीरोग हों ।
विषय
ध्यान, धारणा, सदाचार और गुरुवत् प्रभु की उपासना का उपदेश।
भावार्थ
(धीतिः) आनन्दप्रद पानयोग्य सुधा के समान (धीतिः अधायि) ध्यान धारणा को भी धारण करना चाहिये। (तीर्थेन) तीर्थ में (अंशाः) जलों के समान तारक प्रभु या गुरु के आश्रय (अंशाः अससृग्रम्) प्राप्त होने वाले शरणागत जीव शिष्यों के समान शरण आते हैं। (ऊमाः दस्मं उप यन्ति) देश के रक्षक जनों के समान जीवगण दुःखों और दुष्टों के नाशक स्वामी को प्राप्त होते हैं। हम लोग (सुवितस्य शूषं) सुख से प्राप्त होने योग्य प्रभु वा सदाचार के सुख को (अभि आनश्म) सब ओर से प्राप्त करें। और हम (अमृतानाम् नवेदसः अभूम) मोक्ष-सुखों के प्राप्त करने वाले हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:-१, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७, ११ त्रिष्टुप्। ३, १० विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(धीतिः-अधायि) योगप्रज्ञा “ऋतस्य धीतिः-ऋतस्य प्रज्ञा” [निरु०१०।४०] धारिता सम्पादिता भवति (न-अंशाः-ऊमाः) सम्प्रति तदा ध्यानप्रवाहाः-रक्षणकर्त्तारो भवन्तः (तीर्थे) संसारसागरस्य तारकनिमित्तम् “तीर्थेन हि तरन्ति तद्यथा समुद्रतीर्थेन प्रतरेयुः [गो०१।५।२] (अससृग्रं दस्मम्-उपयन्ति) अनुपममपूर्वमध्यात्मजन्म दर्शनीयमुपगमयन्ति “अत्रान्तर्गतो णिजर्थः”, (सुवितस्य शूषम्-अभ्यानश्म) सुगतस्य शोभनरूपस्य परमात्मनः सुखं प्राप्नुमः “शूषं सुखनाम” [निघ०३। ६] (नवेदसः-अमृतानाम्-अभूम) वयं नवेदसः-अवश्यं वेत्तारो वयं ज्ञानिनः “नभ्राण्नपान्नवेद………” [अष्टा० ६।३।७६] इति निपातनं न-अवेद मुक्तानां मध्ये भवेम॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Maturity of thought and concentration is achieved, vibrations of thought in waves flow in, protective and illuminative for the spirit in virile posture like waves of flood on the holy shore. Thus may we achieve the power of success and prosperity, thus may we be knowers and achievers of the boons of immortals in knowledge, awareness and, in fact, in our very being.
मराठी (1)
भावार्थ
योगबुद्धी प्राप्त झाल्यावर ध्यानाचा प्रवाह योग्याला संसार सागर तरणारा ठरतो व त्याचा अपूर्व अध्यात्म जन्म होऊन तो मुक्तीचा अधिकारी बनतो. ॥३॥
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