ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
एन्द्र॒वाहो॑ नृ॒पतिं॒ वज्र॑बाहुमु॒ग्रमु॒ग्रास॑स्तवि॒षास॑ एनम् । प्रत्व॑क्षसं वृष॒भं स॒त्यशु॑ष्म॒मेम॑स्म॒त्रा स॑ध॒मादो॑ वहन्तु ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ऽवाहः॑ । नृ॒ऽपति॑म् । वज्र॑ऽबाहुम् । उ॒ग्रम् । उ॒ग्रासः॑ । त॒वि॒षासः॑ । ए॒न॒म् । प्रऽत्व॑क्षसम् । वृ॒ष॒भम् । स॒त्यऽशु॑ष्मम् । आ । ई॒म् । अ॒स्म॒ऽत्रा । स॒ध॒ऽमादः॑ । व॒ह॒न्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्रवाहो नृपतिं वज्रबाहुमुग्रमुग्रासस्तविषास एनम् । प्रत्वक्षसं वृषभं सत्यशुष्ममेमस्मत्रा सधमादो वहन्तु ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्रऽवाहः । नृऽपतिम् । वज्रऽबाहुम् । उग्रम् । उग्रासः । तविषासः । एनम् । प्रऽत्वक्षसम् । वृषभम् । सत्यऽशुष्मम् । आ । ईम् । अस्मऽत्रा । सधऽमादः । वहन्तु ॥ १०.४४.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
विषय - सत्यशुष्म
पदार्थ -
[१] प्राण जीवात्मा के साथ रहते हैं, उपनिषद् के शब्दों में उसी प्रकार जैसे कि पुरुष के साथ छाया। छाया पुरुष का साथ नहीं छोड़ती, प्राण आत्मा का साथ नहीं छोड़ते। इसीलिए प्राणों को यहाँ 'सधमादः '' जीव के साथ आनन्दित होनेवाले' कहा गया है। ये प्राण जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के प्रति ले चलनेवाले हैं, सो 'इन्द्रवाह: ' हैं। शक्तिशाली होने से 'उग्रासः ' हैं और अत्यन्त बढ़े हुए होने से, सब उन्नतियों का कारण होने से 'तविषासः' कहे जाते हैं । [२] इन प्राणों से कहते हैं कि (सधमादः) = जीव के साथ आनन्द को अनुभव करनेवाले, (इन्द्रवाह:) = जितेन्द्रिय पुरुष को प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले, (उग्रासः) = तेजस्वी (तविषासः) = प्रवृद्ध व बल-सम्पन्न प्राणो ! आप (एनम्) = इस जीव को (ईम्) = निश्चय से (अस्मत्रा) = हमारे समीप आवहन्तु ले आओ। उस जीव को जो [क] (नृपतिम्) = उन्नतिशील पुरुषों का प्रमुख है, [ख] (वज्रबाहुम्) = बाहु में क्रियाशीलता रूप वज्र को लिये हुए है, सदा क्रियाशील है, [ग] (उग्रम्) = जो तेजस्वी है, [घ] (प्रत्वक्षसम्) = अपने बुद्धि को बड़ा सूक्ष्म बनानेवाला है, [ङ] (वृषभम्) = शक्तिशाली होता हुआ सब पर सुखों का वर्षण करनेवाला है, [च] (सत्यशुष्मम्) = सत्य के बलवाला है। वस्तुतः प्राणसाधना से मनुष्य के जीवन में ये सब गुण उत्पन्न होते हैं और इन गुणों को उत्पन्न करके प्राण इसे प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना से जीव शक्तिशाली व सत्य के बलवाला और सूक्ष्म बुद्धि से युक्त होता है। इन तीनों बातों का सम्पादन करके यह प्रभु के समीप पहुँचता है।
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