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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    ए॒वा पतिं॑ द्रोण॒साचं॒ सचे॑तसमू॒र्जः स्क॒म्भं ध॒रुण॒ आ वृ॑षायसे । ओज॑: कृष्व॒ सं गृ॑भाय॒ त्वे अप्यसो॒ यथा॑ केनि॒पाना॑मि॒नो वृ॒धे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । पति॑म् । द्रो॒ण॒ऽसाच॑म् । सऽचे॑तसम् । ऊ॒र्जः । स्क॒म्भम् । ध॒रुणे॑ । आ । वृ॒ष॒ऽय॒से॒ । ओजः॑ । कृ॒ष्व॒ । सम् । गृ॒भा॒य॒ । त्वे इति॑ । अपि॑ । असः॑ । यथा॑ । के॒ऽनि॒पाना॑म् । इ॒नः । वृ॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा पतिं द्रोणसाचं सचेतसमूर्जः स्कम्भं धरुण आ वृषायसे । ओज: कृष्व सं गृभाय त्वे अप्यसो यथा केनिपानामिनो वृधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । पतिम् । द्रोणऽसाचम् । सऽचेतसम् । ऊर्जः । स्कम्भम् । धरुणे । आ । वृषऽयसे । ओजः । कृष्व । सम् । गृभाय । त्वे इति । अपि । असः । यथा । केऽनिपानाम् । इनः । वृधे ॥ १०.४४.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] हे (धरुण) = हमारा धारण करनेवाले प्रभो ! (एवा) = [ इ गतौ ] गतिशीलता के द्वारा आप (आवृषायसे) = हमारे में उस सोम का वर्षण व सेचन करते हैं जो कि (पतिम्) = पालक है, रोगों से हमें बचानेवाला है, (द्रोणसाचम्) = इस शरीररूपी द्रोण [ = सोमपात्र] में समवेत [= सम्बद्ध] होनेवाला है, (सचेतसम्) = जो चेतना से युक्त है, चेतना व ज्ञान को उत्पन्न करनेवाला है और (ऊर्जः स्कम्भम्) = बल व प्राणशक्ति का धारक है। [२] हे प्रभो ! इस सोम के सेचन से (ओजः कृष्व) = आप हमारे में ओजस्विता का सम्पादन करिये और (त्वे अपि संगृभाय) = हमें अपने में ग्रहण करने की कृपा करिये । हम आपकी गोद में उसी प्रकार आ सकें जैसे कि पुत्र पिता की गोद में आता है। [३] आप हमारे लिये उसी प्रकार होइये (यथा) = जैसे कि (इनः) = स्वामी होते हुए आप (केनिपानाम्) = मेधावियों के (वृधे) = वर्धन के लिये होते हैं। हम भी इस सोम के रक्षण के द्वारा मेधावी हों और आपके प्रिय होकर निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करें ।

    भावार्थ - भावार्थ- सोम [= वीर्य] हमारा रोगों से रक्षण करता है, हमें चेतना सम्पन्न व शक्तिशाली बनाता है। इसके द्वारा हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले बनते हैं। मेधावी बनकर वृद्धि को प्राप्त करते हैं।

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