ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 5
गम॑न्न॒स्मे वसू॒न्या हि शंसि॑षं स्वा॒शिषं॒ भर॒मा या॑हि सो॒मिन॑: । त्वमी॑शिषे॒ सास्मिन्ना स॑त्सि ब॒र्हिष्य॑नाधृ॒ष्या तव॒ पात्रा॑णि॒ धर्म॑णा ॥
स्वर सहित पद पाठगम॑न् । अ॒स्मे इति॑ । वसू॑नि । आ । हि । शंसि॑षम् । सु॒ऽआ॒शिष॑म् । भर॑म् । आ । या॒हि॒ । सो॒मिनः॑ । त्वम् । ई॒शि॒षे॒ । सः । अ॒स्मिन् । आ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ । अ॒ना॒धृ॒ष्या । तव॑ । पात्रा॑णि । धर्म॑णा ॥
स्वर रहित मन्त्र
गमन्नस्मे वसून्या हि शंसिषं स्वाशिषं भरमा याहि सोमिन: । त्वमीशिषे सास्मिन्ना सत्सि बर्हिष्यनाधृष्या तव पात्राणि धर्मणा ॥
स्वर रहित पद पाठगमन् । अस्मे इति । वसूनि । आ । हि । शंसिषम् । सुऽआशिषम् । भरम् । आ । याहि । सोमिनः । त्वम् । ईशिषे । सः । अस्मिन् । आ । सत्सि । बर्हिषि । अनाधृष्या । तव । पात्राणि । धर्मणा ॥ १०.४४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
विषय - अना धृष्य- पात्र
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! गत मन्त्र के अनुसार जब मैं अपने इस शरीर को सोम का पात्र बनाता हूँ, शरीर में सोम का रक्षण करता हूँ तो (हि) = निश्चय से (अस्मे) = हमारे में (वसूनि) जीवन को उत्तम बनानेवाले सब वासक तत्त्व (आगमन्) = प्राप्त होते हैं । और मैं (शंसिषम्) = आपका शंसन व स्तवन करनेवाला बनता हूँ। मेरी मनोवृत्ति भोग-प्रवण न होकर प्रभु-प्रवण होती है। आप मुझ (सोमिनः) = सोम का रक्षण करनेवाले के स्वाशिषम् उत्तम इच्छाओंवाले भरम्- भरणात्मक यज्ञ को (आयाहि) = आइये । वस्तुतः (त्वं ईशिषे) = आप ही तो इन सब यज्ञों के ईश हैं आपकी कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । [२] (स) = वे आप (अस्मिन्) = इस हमारे (बर्हिषि) = वासनाओं को जिसमें से उखाड़ दिया गया है और जिसमें यज्ञ की भावना को स्थापित किया गया है उस हृदय में (आसत्सि) = आकर विराजमान होते हैं। उन हृदयस्थ आपकी प्रेरणा व शक्ति से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । [३] हे प्रभो ! (तव) = आपकी (धर्मणा) = धारकशक्ति से ही (पात्राणि) = ये सोम के रक्षण के पात्रभूत हमारे शरीर (अनाधृष्या आधि) = व्याधियों से धर्षण के योग्य नहीं होते । आपके हृदय में स्थित होने पर वहाँ 'काम' का प्रवेश नहीं होता। इसका प्रवेश न होने पर शरीर में सोम का रक्षण होता है। इस सोम के रक्षण के होने पर शरीर का धर्षण रोगों से नहीं किया जाता और वासनाएँ मन का धर्षण नहीं कर पातीं। शरीर व मन दोनों ही बड़े स्वस्थ बनते हैं। यह स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मनवाला पुरुष ' आदर्श - पुरुष' होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- सोम का रक्षण होने पर हमारे हृदयों में प्रभु का वास होगा। उस समय हमारे शरीर रोगों से आक्रान्त न होंगे, मन वासनाओं से मलिन न होंगे।
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