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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 44/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    पृथ॒क्प्राय॑न्प्रथ॒मा दे॒वहू॑त॒योऽकृ॑ण्वत श्रव॒स्या॑नि दु॒ष्टरा॑ । न ये शे॒कुर्य॒ज्ञियां॒ नाव॑मा॒रुह॑मी॒र्मैव ते न्य॑विशन्त॒ केप॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृथ॑क् । प्र । आ॒य॒न् । प्र॒थ॒माः । दे॒वऽहू॑तयः । अकृ॑ण्वत । श्र॒व॒स्या॑नि । दु॒स्तरा॑ । न । ये । शे॒कुः । य॒ज्ञिया॑म् । नाव॑म् । आ॒ऽरुह॑म् । ई॒र्मा । ए॒व । ते । नि । अ॒वि॒श॒न्त॒ । केप॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृथक्प्रायन्प्रथमा देवहूतयोऽकृण्वत श्रवस्यानि दुष्टरा । न ये शेकुर्यज्ञियां नावमारुहमीर्मैव ते न्यविशन्त केपयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पृथक् । प्र । आयन् । प्रथमाः । देवऽहूतयः । अकृण्वत । श्रवस्यानि । दुस्तरा । न । ये । शेकुः । यज्ञियाम् । नावम् । आऽरुहम् । ईर्मा । एव । ते । नि । अविशन्त । केपयः ॥ १०.४४.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 44; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 27; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (प्रथमाः) = [प्रथ विस्तारे] अपना विस्तार करनेवाले व अपने हृदयों को विशाल बनानेवाले, (देवहूतयः) = देव को पुकारनेवाले प्रभु की प्रार्थना करनेवाले, अपने में दिव्यगुणों को स्थापित करने के लिये यत्न करनेवाले, गत मन्त्र के सोमी [=सोम रक्षक] पुरुष (पृथक्) = अनासक्त [detached] होकर, अलग रहते हुए, न फँसते हुए (प्रायन्) = प्रकृष्ट गति करनेवाले होते हैं। ये संसार में चलते हैं, सब कार्य करते हैं। पर उनमें फँसते नहीं 'कुर्याद् विद्वाँस्तथासक्त: 'ये असक्त होकर ही कार्यों को करते हैं । [२] आसक्ति कार्यों के सौन्दर्य को समाप्त कर देती है, तो अनासक्ति हमारे कार्यों की शोभा को बढ़ानेवाली होती है। अनासक्त भाव से कार्यों को करते हुए ये सोमी पुरुष (श्रवस्यानि) = उन श्रवणीय यशों को (अकृण्वत) = करनेवाले होते हैं जो यश (दुष्टरा) = दूसरों से दुस्तर होते हैं। इनके यश का अन्य लोग उल्लंघन नहीं कर पाते । [३] इनके विपरीत वे व्यक्ति (ये) = जो (यज्ञयां नावम्) = यज्ञमयी नाव पर (आरुहम्) = आरोहण करने के लिये न शेकुः = समर्थ नहीं होते, अर्थात् जो जीवन को शक्ति से ऊपर उठकर यज्ञिय कार्यों में नहीं लगा पाते (ते) = वे (केपयः) = कुत्सित कर्मा लोग (ईर्य एव) = [ऋ णेनैव] अपने पर चढ़े हुए 'ऋण' से ही (न्यविशन्त) = नीचे और नीचे प्रवेश करते हैं, इनको अधोगति प्राप्त होती है। यज्ञ ही वह नाव है जो कि भवसागर से तराकर हमें उत्तर शिव वाजों [शक्तियों व धनों] को प्राप्त कराती है। [४] हमारे पर 'पितृ ऋण, ऋषि ॠण, देव ऋण व भव ऋण' इस प्रकार चार ऋण हैं। इन ऋणों को हम विविध यज्ञिय कर्मों द्वारा अदा किये करते हैं। यदि उन यज्ञों को हम नहीं करते ऋणभार से दबे हुए हम अधोगति को प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम संसार में फल की आसक्ति को छोड़कर कर्त्तव्य कर्मों को करें, यही यज्ञिय नाव है जो हमें भवसागर से तराती है और अधोगति से बचाती है।

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