ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः
देवता - मरूतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र ये दि॒वः पृ॑थि॒व्या न ब॒र्हणा॒ त्मना॑ रिरि॒च्रे अ॒भ्रान्न सूर्य॑: । पाज॑स्वन्तो॒ न वी॒राः प॑न॒स्यवो॑ रि॒शाद॑सो॒ न मर्या॑ अ॒भिद्य॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । दि॒वः । पृ॒थि॒व्याः । न । ब॒र्हणा॑ । त्मना॑ । रि॒रि॒च्रे । अ॒भ्रात् । न । सूर्यः॑ । पाज॑स्वन्तः । न । वी॒राः । प॒न॒स्यवः॑ । रि॒शाद॑सः । न । मर्याः॑ । अ॒भिऽद्य॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये दिवः पृथिव्या न बर्हणा त्मना रिरिच्रे अभ्रान्न सूर्य: । पाजस्वन्तो न वीराः पनस्यवो रिशादसो न मर्या अभिद्यवः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ये । दिवः । पृथिव्याः । न । बर्हणा । त्मना । रिरिच्रे । अभ्रात् । न । सूर्यः । पाजस्वन्तः । न । वीराः । पनस्यवः । रिशादसः । न । मर्याः । अभिऽद्यवः ॥ १०.७७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
विषय - प्राणसाधक की शोभा का अतिरेक
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र के अनुसार प्राणसाधना से शोभा को प्राप्त करनेवाले ये साधक [= मरुत्] वे हैं (ये) = जो कि (दिवः) = द्युलोक के दृष्टिकोण से (पृथिव्याः न) = [ न च सा० ] और पृथिवी के दृष्टिकोण से (बर्हणा) = वृद्धि के कारण (त्मना) = स्वयं इस प्रकार (प्ररिरिने) = खूब बढ़े हुए होते हैं (न) = जैसे कि (अभ्रात् सूर्य:) = बादल से सूर्य बढ़ा हुआ होता है। बादल कुछ देर के लिये सूर्य को एक देश में आवृत कर ले, परन्तु सदा सर्वत्र ऐसा कर सकना बादल के लिये सम्भव नहीं । इसी प्रकार प्राणसाधक को वासनारूप वृत्र हमेशा आवृत नहीं रख सकता । प्राणसाधक की वासनाएँ नष्ट होती ही हैं। वासना - विनाश से यह अपने मस्तिष्क रूप द्युलोक में ज्ञान के सूर्य से चमकता है। उसकी यह चमक बाह्य द्युलोक की चमक से भी अधिक होती है। और पृथिवीरूप शरीर इसका इस पृथिवी से भी अधिक दृढ़ बनता है । [२] (पाजस्वन्तः) = शक्तिशाली (वीराः न) = वीरों के समान ये प्राणसाधक (पनस्यवः) = स्तुति की कामनावाले होते हैं। इनका कोई व्यवहार कायर पुरुषों के समान नहीं होता। [३] (रिशादसः) = शत्रुओं को खा जानेवाले (मर्याः न) = मनुष्यों के समान ये (अभिद्यवः) = अभिगत दीप्तिवाले होते हैं । काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतकर ये दीप्त जीवनवाले बनते हैं । अथवा दोनों ओर ये दीप्तिवाले होते हैं। दोनों ओर, अर्थात् प्रकृतिविद्या में भी और आत्मविद्या में भी ये निपुण होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना से मनुष्य वासना से ऊपर उठकर मस्तिष्क व शरीर को दीप्त व दृढ़ बनाता है।
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