ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
श्रि॒ये मर्या॑सो अ॒ञ्जीँर॑कृण्वत सु॒मारु॑तं॒ न पू॒र्वीरति॒ क्षप॑: । दि॒वस्पु॒त्रास॒ एता॒ न ये॑तिर आदि॒त्यास॒स्ते अ॒क्रा न वा॑वृधुः ॥
स्वर सहित पद पाठश्रि॒ये । मर्या॑सः । अ॒ञ्जीन् । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ । सु॒ऽमारु॑तम् । न । पू॒र्वीः । अति॑ । क्षपः॑ । दि॒वः । पु॒त्रासः॑ । एताः॑ । न । ये॒ति॒रे॒ । आ॒दि॒त्यासः॑ । ते । अ॒क्राः । न । व॒वृ॒धुः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रिये मर्यासो अञ्जीँरकृण्वत सुमारुतं न पूर्वीरति क्षप: । दिवस्पुत्रास एता न येतिर आदित्यासस्ते अक्रा न वावृधुः ॥
स्वर रहित पद पाठश्रिये । मर्यासः । अञ्जीन् । अकृण्वत । सुऽमारुतम् । न । पूर्वीः । अति । क्षपः । दिवः । पुत्रासः । एताः । न । येतिरे । आदित्यासः । ते । अक्राः । न । ववृधुः ॥ १०.७७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - अकृत्रिम शोभा
पदार्थ -
[१] (मर्यासः) = मनुष्य (श्रिये) = शोभा की प्राप्ति के लिये (अञ्जीन् अकृण्वत) = आभरणों को करते हैं। आभरणों से शरीर की शोभा को बढ़ाने के लिये यत्नशील होते हैं। परन्तु (सुमारुतम्) = इस उत्तम मरुतों के [प्राणों के] गण को (पूर्वीः क्षपः) = बहुत भी नाशक शत्रु (न अति) [क्रम्य वर्तन्ते ] = नहीं लाँघ पाते हैं। इन मरुतों के गण के सामने हमारे इन शत्रुओं की शक्ति शान्त हो जाती है। इन शत्रुओं के शान्त हो जाने पर न शरीर में रोग आते हैं, नांही मन में राग आ पाते हैं। इस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाकर तथा मन को निर्मल बनाकर ये मरुत् हमारी शोभा को बढ़ानेवाले होते हैं। आभरणों द्वारा प्राप्त शोभा कृत्रिम थी, यह मरुतों से प्राप्त करायी गयी शोभा वास्तविक है, इसे ही प्राप्त करना बुद्धिमत्ता है । [२] इन मरुतों की साधना करनेवाले लोग (दिवस्पुत्रासः) = ज्ञान के पुतले [पुञ्ज] बनते हुए (एताः न) = गतिशील व्यक्तियों की तरह (येतिरे) = सदा शोभा को प्राप्त करने के लिये यत्नशील होते हैं। आदित्यासः ते सदा सद्गुणों का आदान करनेवाले वे प्राणसाधक (अक्राः न) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले वीरों के समान (वावृधुः) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं। शत्रुओं को परास्त करते हुए, सद्गुणों का आदान करते हुए ये सचमुच अपनी शोभा को बढ़ा पाते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना से प्राप्त होनेवाली शोभा ही वास्तविक शोभा है, आभरणों से वह शोभा अप्राप्य है।
इस भाष्य को एडिट करें