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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    श्रि॒ये मर्या॑सो अ॒ञ्जीँर॑कृण्वत सु॒मारु॑तं॒ न पू॒र्वीरति॒ क्षप॑: । दि॒वस्पु॒त्रास॒ एता॒ न ये॑तिर आदि॒त्यास॒स्ते अ॒क्रा न वा॑वृधुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रि॒ये । मर्या॑सः । अ॒ञ्जीन् । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ । सु॒ऽमारु॑तम् । न । पू॒र्वीः । अति॑ । क्षपः॑ । दि॒वः । पु॒त्रासः॑ । एताः॑ । न । ये॒ति॒रे॒ । आ॒दि॒त्यासः॑ । ते । अ॒क्राः । न । व॒वृ॒धुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रिये मर्यासो अञ्जीँरकृण्वत सुमारुतं न पूर्वीरति क्षप: । दिवस्पुत्रास एता न येतिर आदित्यासस्ते अक्रा न वावृधुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रिये । मर्यासः । अञ्जीन् । अकृण्वत । सुऽमारुतम् । न । पूर्वीः । अति । क्षपः । दिवः । पुत्रासः । एताः । न । येतिरे । आदित्यासः । ते । अक्राः । न । ववृधुः ॥ १०.७७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मर्यासः) मनुष्य (श्रिये) भद्र कल्याण के लिए (अञ्जीन् अकृण्वत) उन जीवन्मुक्तों को प्रसिद्ध करते हैं (सुमारुतम्) जिनका सुव्यवस्थित विद्वन्मण्डल है (पूर्वीः-अति-क्षिपः) प्राचीन प्रेरणा करनेवाली प्रवृत्तियों को हम आगे-आगे प्राप्त करें (दिवः-पुत्रासः) वे प्रकाशमान परमात्मा के पुत्र जीवन्मुक्त (एताः-न येतिरे) इन सुप्रवृत्तियों को नष्ट नहीं करते हैं (ते-आदित्यासः) वे अदिति-पृथिवी पर होनेवाले या शरीरस्थ (अक्राः) आक्रमणकारी दोष (न वावृधुः) न बढ़ें ॥२॥

    भावार्थ

    जीवन्मुक्त महानुभावों को आदर देना चाहिए, इनके द्वारा प्राप्त प्रवृत्तियाँ या प्रेरणाएँ मनुष्य को आगे ले जाती हैं, उनसे पार्थिव एवं शारीरिक दोष नहीं बढ़ते हैं ॥२॥

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    विषय

    शस्त्र-निर्माण, लक्ष्मी वृद्धि, वीरों की वृद्धि का उपदेश। किरणोंवत् वीरों के उद्योग करने की आवश्यकता।

    भावार्थ

    (मर्यासः) शत्रुओं को मारने वाले, वा मरणधर्मा, मनुष्य (श्रिये) अपनी शोभा और सम्पदा को बढ़ाने के लिये ही (अञ्जीन् अकृण्वत) अपने व्यक्त आभूषणों और कान्तियुक्त शस्त्रों को बनावें। (मर्यासः) मनुष्य (श्रिये) लक्ष्मी की वृद्धि के लिये (अञ्जीन्) व्यक्तरूप से प्रकट कान्तियुक्त आभरणों और पदार्थों को (अकृण्वत) उत्पन्न करते और उनको उपयोग करते हैं। (न) और इसी प्रकार (श्रिये) लक्ष्मी की वृद्धि के लिये (सु-मारुतम्) उत्तम वीरों के गण को भी (अकृण्वत) तैयार कर हैं। जिस प्रकार (पूर्वीः) पूर्व विद्यमान (क्षपः अति) रात्रियों को अतिक्रमण करके यदि (एताः) आगे २ आने वाले (दिवः पुत्रासः) सूर्य के पुत्रवत् अनेक किरण (न येतिरे) यत्न न करें तब (आदित्यासः) पृथिवी पर के (ते) वे अनेक (अक्राः) विचरने और न विचरने वाले जंगम जीव और स्थावर, चर अचर भी (न ववृधुः) वृद्धि को प्राप्त न हों, उसी प्रकार (एताः) आगे बढ़ने वाले (दिवः पुत्रासः) विजिगीषु विजेता पुरुष के पुत्रों के समान बहुतों की रक्षा करने में समर्थ ये वीर पुरुष यदि (पूर्वीः क्षपः) आगे आने वाले नाशकारी सेनाओं को (अति) अतिक्रमण करके (न येतिरे) उद्योग न करें तो (ते) वे (आदित्यासः) भूमिवासी वा माता पिता वा पुत्रादि आगे बढ़ने वाले प्रजागण (न ववृधुः) वृद्धि को प्राप्त न हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:– १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। ६—८ विराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अकृत्रिम शोभा

    पदार्थ

    [१] (मर्यासः) = मनुष्य (श्रिये) = शोभा की प्राप्ति के लिये (अञ्जीन् अकृण्वत) = आभरणों को करते हैं। आभरणों से शरीर की शोभा को बढ़ाने के लिये यत्नशील होते हैं। परन्तु (सुमारुतम्) = इस उत्तम मरुतों के [प्राणों के] गण को (पूर्वीः क्षपः) = बहुत भी नाशक शत्रु (न अति) [क्रम्य वर्तन्ते ] = नहीं लाँघ पाते हैं। इन मरुतों के गण के सामने हमारे इन शत्रुओं की शक्ति शान्त हो जाती है। इन शत्रुओं के शान्त हो जाने पर न शरीर में रोग आते हैं, नांही मन में राग आ पाते हैं। इस प्रकार शरीर को स्वस्थ बनाकर तथा मन को निर्मल बनाकर ये मरुत् हमारी शोभा को बढ़ानेवाले होते हैं। आभरणों द्वारा प्राप्त शोभा कृत्रिम थी, यह मरुतों से प्राप्त करायी गयी शोभा वास्तविक है, इसे ही प्राप्त करना बुद्धिमत्ता है । [२] इन मरुतों की साधना करनेवाले लोग (दिवस्पुत्रासः) = ज्ञान के पुतले [पुञ्ज] बनते हुए (एताः न) = गतिशील व्यक्तियों की तरह (येतिरे) = सदा शोभा को प्राप्त करने के लिये यत्नशील होते हैं। आदित्यासः ते सदा सद्गुणों का आदान करनेवाले वे प्राणसाधक (अक्राः न) = शत्रुओं पर आक्रमण करनेवाले वीरों के समान (वावृधुः) = खूब ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं। शत्रुओं को परास्त करते हुए, सद्गुणों का आदान करते हुए ये सचमुच अपनी शोभा को बढ़ा पाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से प्राप्त होनेवाली शोभा ही वास्तविक शोभा है, आभरणों से वह शोभा अप्राप्य है।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मर्यासः) मनुष्याः (श्रिये-अञ्जीन्-अकृण्वत) भद्राय “श्रीर्वै भद्रम्” [जै० ३।१७२] तान् जीवन्मुक्तान् व्यक्तान् कुर्वन्ति (सुमारुतम्) व्यवस्थितं मरुद्गणं विद्वन्मण्डलं यथा (पूर्वीः-अतिक्षपः) पुरातनीः क्षेपयित्रीः प्रेरयित्रीः प्रवृत्तीरतीत्याग्रे गच्छेम (दिवः-पुत्रासः) प्रकाशमानस्य परमात्मनः पुत्रा जीवन्मुक्ताः (एताः-न येतिरे) एताः सुप्रवृत्तीः खलु न यातयन्ति नाशयन्ति (ते-आदित्यासः-अक्राः-न वावृधुः) ते साधारणाः पृथिव्यां भवा शरीरस्था वा आक्रमणकारिणो दोषा न वर्धेरन् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For their honour and glory, mortals adore and celebrate them, Even veteran powers of earliest fame cannot violate them. Children of light, they shoot forward like archers and do not deviate from the course. Children of Aditi, mother Eternity, they advance like rays of light and extend the bounds of knowledge.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जीवनमुक्तांबद्दल आदर बाळगला पाहिजे. त्यांच्याकडून प्राप्त झालेल्या प्रवृत्ती किंवा प्रेरणा माणसाला पुढे जाण्यास प्रवृत्त करतात. त्यामुळे पार्थिव किंवा शारीरिक दोष वाढत नाहीत. ॥२॥

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