ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 6
ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः
देवता - मरूतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र यद्वह॑ध्वे मरुतः परा॒काद्यू॒यं म॒हः सं॒वर॑णस्य॒ वस्व॑: । वि॒दा॒नासो॑ वसवो॒ राध्य॑स्या॒राच्चि॒द्द्वेष॑: सनु॒तर्यु॑योत ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । वह॑ध्वे । म॒रु॒तः॒ । प॒रा॒कात् । यू॒यम् । म॒हः । स॒म्ऽवर॑णस्य । वस्वः॑ । वि॒दा॒नासः॑ । व॒स॒वः॒ । राध्य॑स्य । आ॒रात् । चि॒त् । द्वेषः॑ । स॒नु॒तः । यु॒यो॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्वहध्वे मरुतः पराकाद्यूयं महः संवरणस्य वस्व: । विदानासो वसवो राध्यस्याराच्चिद्द्वेष: सनुतर्युयोत ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । वहध्वे । मरुतः । पराकात् । यूयम् । महः । सम्ऽवरणस्य । वस्वः । विदानासः । वसवः । राध्यस्य । आरात् । चित् । द्वेषः । सनुतः । युयोत ॥ १०.७७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वसवः) हे वसानेवाले (मरुतः) विद्वानों ! (यूयम्) तुम (यत्) जब (पराकात्) प्रकृष्ट मोक्षधाम से (महः) महान् (संवरणस्य) सम्यक् वरण करने योग्य (वस्वः-राध्यस्य) आनन्दधन सेवन करने योग्य को (वहध्वे) अपने अध्यात्मप्रवचन से प्राप्त कराते हो, तब (आरात्-चित्) हमारे पास से (सनुतः) अन्तर्हित-अन्दर छिपी हुई (द्वेषः) द्वेषभावनाओं को (युयोत) पृथक् करो, यह आपकी कृपा होगी ॥६॥।
भावार्थ
विद्वान् जन अपने अध्यात्म उपदेश से मनुष्य को इस योग्य बना देते हैं कि उसके अन्दर की द्वेषभावनाएँ समाप्त हो जाती हैं और वह मोक्षानन्द का अधिकारी बन जाता है ॥६॥
विषय
वीरों और वैश्य वर्गों को धन की प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
हे (मरुतः) विद्वानो, वीरों वा वैश्य वर्ग के जनो ! (यत्) जिस कारण (पराकात्) दूर देश से और (आरात् चित्) समीप से भी (यूयम्) आप लोग (सं-वरणस्य) उत्तम रीति से प्राप्त करने योग्य, सब के मन को प्रिय लगने वाले (राध्यस्य) सर्व-कर्म-साधक, सबको इष्ट, (महः वस्वः) बड़े भारी धन को (वि-दानासः) प्राप्त करते रहते हैं। और इसलिये हे (वसवः) राष्ट्र के बसाने वालो ! आप लोग (सनुतः) छुपे, अप्रत्यक्ष (द्वेषः) अप्रीति कारण को भी (युयोत) दूर करो जिससे तुम्हारे धन-संग्रह के कार्य में विघ्न न पड़े।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:– १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। ६—८ विराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
आत्मदर्शन व निद्वेषता
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (यूयम्) = तुम (यद्) = जब (पराकाद्) = दूर देश से (वहध्वे) = इन्द्रियों व मन को (पुनः) = वापिस लाते हो, भटकते हुए इनको निरुद्ध करके अन्दर ही स्थापित करते हो तो आप (महः) = महनीय, प्रशंसनीय, (संवरणस्य) = वरणीय, चाहने योग्य (वस्वः) = आत्म-धन के (विदानासः) = प्राप्त करानेवाले होते हो, उस आत्मधन के जो (राध्यस्य) = सिद्ध करने योग्य है, सचमुच प्राप्त करने योग्य है । इस आत्मधन के अभाव में अन्य धनों को तो कोई महत्त्व है ही नहीं । प्राणसाधना के होने पर चित्तवृत्ति निरोध सम्भव होता है, उस समय आत्मदर्शन से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। यह आत्मदर्शन ही राध्य व साध्य है । [२] (वसवः) = आत्मदर्शन के द्वारा उत्तम निवास को प्राप्त करानेवाले वसुओ ! आप (सनुतः) = अन्तर्हित (द्वेषः) = द्वेष की भानाओं को [ द्वेषः = द्वेष्टन् सा० ] (आरात् चित्) = सुदूर ही (युयोत) = हमारे से पृथक् करो । आत्मदर्शन के होने पर द्वेष की भावनाओं के रहने का सम्भव ही नहीं रहता। ये अवाञ्छनीय भावनाएँ हमारे हृदयों में छिपे रूप से विद्यमान होती हैं, इन्हें नष्ट करना आवश्यक ही है। इनके नाश के लिये यह प्राणसाधना साधन बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम से चित्तवृत्ति का निरोध होकर आत्मदर्शन रूप महनीय धन प्राप्त होता है, उस समय मन में द्वेष की भावनाओं का अभाव हो जाता है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वसवः-मरुतः-यूयम्) हे वासयितारो विद्वांसः ! यूयं (यत्) यदा (पराकात्) परात्-प्रकृष्टान्मोक्षधाम्नः (महः संवरणस्य वस्वः राध्यस्य) महत् संवरणीयं ग्रहणीयं वसुमोक्षानन्दधनं “राध्यं संसेव्यम्” द्वितीयास्थाने षष्ठी व्यत्ययेन (वहध्वे) प्रापयत निजाध्यात्मप्रवचनेन, तदा (आरात्-चित्) अन्तःस्थानात्-अस्माकमन्तरात् खलु (सनुतः-द्वेषः-युयोत) अन्तर्हिताः [“सनुतः-निर्णीतान्तर्हितनाम” निघ० ३।२५] द्वेषभावनाः पृथक् कुरुतेति युष्माकं महती कृपा ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Maruts, creators, achievers and givers of wealth and providers of peace and settlement, when you come from afar and bring great wealth of choice human value and order capable of further and capital development, then you eliminate all hate, jealousy and enmity polluting the heart within and society outside.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वान लोक आपल्या अध्यात्म उपदेशाने माणसाला असे योग्य बनवितात, की त्याच्यामधील द्वेष भावना समाप्त होतात व तो मोक्षानंदाचा अधिकारी बनतो. ॥६॥
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