ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
यु॒ष्माकं॑ बु॒ध्ने अ॒पां न याम॑नि विथु॒र्यति॒ न म॒ही श्र॑थ॒र्यति॑ । वि॒श्वप्सु॑र्य॒ज्ञो अ॒र्वाग॒यं सु व॒: प्रय॑स्वन्तो॒ न स॒त्राच॒ आ ग॑त ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ष्माक॑म् । बु॒ध्ने । अ॒पाम् । न । याम॑नि । वि॒थु॒र्यति॑ । न । म॒ही । श्र॒थ॒र्यति॑ । वि॒श्वऽप्सुः॑ । य॒ज्ञः । अ॒र्वाक् । अ॒यम् । सु । वः॒ । प्रय॑स्वन्तः । न । स॒त्राचः॑ । आ । ग॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युष्माकं बुध्ने अपां न यामनि विथुर्यति न मही श्रथर्यति । विश्वप्सुर्यज्ञो अर्वागयं सु व: प्रयस्वन्तो न सत्राच आ गत ॥
स्वर रहित पद पाठयुष्माकम् । बुध्ने । अपाम् । न । यामनि । विथुर्यति । न । मही । श्रथर्यति । विश्वऽप्सुः । यज्ञः । अर्वाक् । अयम् । सु । वः । प्रयस्वन्तः । न । सत्राचः । आ । गत ॥ १०.७७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(युष्माकम्) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! तुम्हारे (बुध्ने) बोधन करानेवाले वेदज्ञान में (अपां न) जलों के जैसे (यामनि मही) गमन में युक्त पृथिवी (न विथुर्यति) व्यथा को प्राप्त नहीं होती-हिंसित नहीं होती है, वैसे हमारी अन्तःस्थली व्यथित नहीं होती है (वः) तुम्हारा (अयं यज्ञः) यह ज्ञानयज्ञ (विश्वप्सुः-अर्वाक्) विश्वव्यापी या विविधरूप भलीभाँति हमारे अभिमुख हो-हमें प्राप्त हो (प्रयस्वन्तः-न) प्रशस्तज्ञानवालों के समान (सत्राचः-आगत) सत्य को प्राप्त होनेवाले आवें ॥४॥
भावार्थ
जीवन्मुक्त विद्वानों के द्वारा उनका ज्ञानबोधनप्रवाह हमें प्राप्त होवे, जैसे जलों के प्रवाह से पृथिवी को कोई हानि नहीं होती, ऐसे ही हमारी अन्तःस्थली की कोई हानि नहीं होती। वह तो निर्मल होती चली जाती है। वह विश्वव्यापी ज्ञानयज्ञ हमें प्राप्त होता रहे, एतदर्थ तुम भी प्राप्त होते रहो ॥४॥
विषय
जल धाराओं के समान वीर विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(अपां न यामनि) जलों के बहने में जिस प्रकार (मही न विथुर्यति न श्रथर्यति) भूमि पीड़ित नहीं होती न टूटती फूटती है। इसी प्रकार हे विद्वानो और वीर पुरुषो ! (युष्माकम् अपां यामनि) आप्तस्वरूप आप लोगों के प्रयाणकाल और शासनकाल में भी (मही) भूमि, भूमिवासिनी प्रजा (न विथुर्यति) व्यथा को प्राप्त न हो, (न श्रथर्यति) छिन्न भिन्न न हो। हे विद्वान् पुरुषो ! (वः) आप लोगों का (अयम्) यह (अर्वाक्) प्रत्यक्ष (यज्ञः) सत्संग होता है। आप लोग (प्रयस्वन्तः) उत्तम श्रमयुक्त (न) और (सत्राचः) एक साथ सुसंगत वा सत्य के आश्रित होकर (आगत) आवें।
टिप्पणी
नश्चार्थः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:– १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। ६—८ विराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
अरोगता - अक्षीणता
पदार्थ
[१] हे [मरुतः] प्राणो ! (युष्माकं बुध्ने) = तुम्हारे आधार में, (अपां यामनि) = रेतः कणों के रूप में जलों के शरीर में गति करने पर मही यह पृथिवी रूप शरीर (न विथुर्यति) = [व्यथते ] रोगों से पीड़ित नहीं होता और (न श्रथर्यति) = नांही क्षीणशक्तिवाला होता है। प्राणसाधना से सोमकणों की [वीर्यकणों का] शरीर में ऊर्ध्वगति होती है। इस सोमशक्ति के शरीर में व्यापन से शरीर रोगाक्रान्त नहीं होता और शरीर की शक्ति क्षीण नहीं होती । [२] हे मरुतो ! (अयम्) = यह (अर्वाग्) = शरीर के अन्दर चलनेवाला (विश्वप्सुः) = विश्वरूप (सु यज्ञः) = उत्तम यज्ञ (व:) = आपका ही है । शरीर के अन्दर होनेवाली सब क्रियाएँ इन मरुतों की कृपा से ही होती हैं। भोजन का ग्रहण पाचन तथा धातुओं का सर्वत्र नयन आदि सब क्रियाएँ इन प्राणों के ही अधीन हैं। इसलिए हे (सत्राचः) = मिलकर शरीर में गति करनेवाले मरुतो ! (प्रयस्वन्तः) = उत्तम हविरूप अन्नवाले होते हुए आप (नः आगत) = हमें प्राप्त होवो । प्राणशक्ति के वर्धन के लिये हम उत्तम सात्त्विक अन्नों का ही प्रयोग करें। इन अन्नों से बढ़ी हुई शक्तिवाले प्राण हमारे जीवन को भी सात्त्विक बनायेंगे। उसी समय हमारा जीवन यज्ञमय हो पायेगा ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से सोमरक्षण होकर शरीर न रोगाक्रान्त होता है, न क्षीणशक्ति । उस समय हमारा जीवन यज्ञमय हो जाता है। शरीर के अन्दर चलनेवाली क्रियाएँ सब यज्ञ का रूप धारण कर लेती है ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(युष्माकं बुध्ने) हे जीवन्मुक्ता विद्वांसः ! युष्माकं बोधने वेदज्ञाने “बुध्नः-यो बोधयति सर्वान् पदार्थान्” [ऋ० १।९६।६ दयानन्दः] (अपां न यामनि मही न विथुर्यति न श्रथर्यति) यथा जलानां गमने पृथिवी न व्यथां गच्छति “विथुराव्यथनानि” [ऋ० ६।२५।३ दयानन्दः] न हिंसिता भवति “व्यथ वधकर्मसु” [निघ० २।१९] तथाऽस्माकमन्तःस्थली न व्यथेते हिंस्यते (वः-अयम्-यज्ञः-विश्वप्सुः-अर्वाक्) एष युष्माकं विश्वव्यापी विविधरूपो वा “विश्वप्सु विविधरूपम्” [ऋ० ६।२५।३ दयानन्दः] ज्ञानयज्ञोऽस्मदभिमुखं सुष्ठु भवतु (प्रयस्वन्तः सत्राचः-आगत) प्रशस्तज्ञानवन्तः “प्रयस्वन्तः प्रशस्तानि प्रयांसि प्रज्ञानानि विद्यन्ते येषां ते” [ऋ० १।६०।३ दयानन्दः] “सत्रा सत्यनाम” [निघ० ३।१०] सत्यमञ्चन्ति प्राप्नुवन्ति च सत्यं ब्रह्म प्राप्ता आगच्छत ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
In your area of operation you shine on together, as in the spaces of cosmic dynamics the earth does not shake, nor does it slacken, but goes on and on steadily on its course. Same way your yajnic operation in the cosmic law is universal, versatile and holy. Pray come to our sessions, bear and bring us the food, energy and the wealth we need and work for.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनमुक्त विद्वानांद्वारे त्यांचा ज्ञानबोधन प्रवाह आम्हाला प्राप्त व्हावा. जशी जलाच्या प्रवाहाने पृथ्वीची कोणतीही हानी होत नाही तशीच आमच्या अंतस्थलाची कोणतीही हानी होत नाही तर ती निर्मल होत जाते. तो विश्वव्यापी ज्ञानयज्ञ आम्हाला प्राप्त होत राहावा यासाठी विद्वान आम्हाला प्राप्त व्हावेत. ॥४॥
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