ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 7
ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः
देवता - मरूतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
य उ॒दृचि॑ य॒ज्ञे अ॑ध्वरे॒ष्ठा म॒रुद्भ्यो॒ न मानु॑षो॒ ददा॑शत् । रे॒वत्स वयो॑ दधते सु॒वीरं॒ स दे॒वाना॒मपि॑ गोपी॒थे अ॑स्तु ॥
स्वर सहित पद पाठयः । उ॒त्ऽऋचि॑ । य॒ज्ञे । अ॒ध्व॒रे॒ऽस्थाः । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । न । मानु॑षः । ददा॑शत् । रे॒वत् । सः । वयः॑ । द॒ध॒ते॒ । सु॒ऽवीर॑म् । सः । दे॒वाना॑म् । अपि॑ । गो॒ऽपी॒थे । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
य उदृचि यज्ञे अध्वरेष्ठा मरुद्भ्यो न मानुषो ददाशत् । रेवत्स वयो दधते सुवीरं स देवानामपि गोपीथे अस्तु ॥
स्वर रहित पद पाठयः । उत्ऽऋचि । यज्ञे । अध्वरेऽस्थाः । मरुत्ऽभ्यः । न । मानुषः । ददाशत् । रेवत् । सः । वयः । दधते । सुऽवीरम् । सः । देवानाम् । अपि । गोऽपीथे । अस्तु ॥ १०.७७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो (अध्वरेष्ठाः) अध्यात्म मार्गवाले योग में स्थित (मानुषः) मनुष्य तथा (उदृचि) उत्कृष्ट स्तुतिवाले ज्ञानयज्ञ के निमित्त (मरुद्भ्यः) जीवन्मुक्तों के लिए (न) सम्प्रति (ददाशत्) अपने आत्मा को दे देता है, समर्पित करता है, (सः) वह (सुवीरम्) शोभन प्राणों से युक्त (रेवत्) मोक्षैश्वर्यवाले (वयः) जीवन को (दधते) धारण करता है, तथा (सः) वह (गोपीथे) सोमपान-शान्त परमानन्दरसपान के निमित्त (देवानाम्-अस्तु) जीवन्मुक्तों के मध्य में-उनकी श्रेणी में हो जाता है ॥७॥
भावार्थ
अध्यात्ममार्गवाले योगाभ्यास तथा परमात्मा की स्तुति के निमित्त मनुष्य जीवन्मुक्त विद्वानों की संगति से मोक्षानन्द पान करने का अधिकारी उत्कृष्ट जीवनवाला बन जाता है ॥७॥
विषय
दानशील उदार पुरुष को उत्तम लाभ और उत्तम मान-पद प्राप्ति।
भावार्थ
(यः) जो (अध्वरे) यज्ञ, वा प्रजापालक के सर्वश्रेष्ठ पद पर विराज कर (उद्-ऋचि यज्ञे) अन्तिम ऋचा तक पूर्ण होने वाले यज्ञ की समाप्ति पर (मरुद्भ्यः रेवत् न मानुषः) विद्वान् यज्ञकर्त्ता जनों को धन सम्पन्न पुरुष के तुल्य (ददाशत्) दान-दक्षिणा आदि उदारता से प्रदान करता है, (सः) वह (सु-वीरं) उत्तम पुत्रों, वीरों सहित (वयः दधते) दीर्घ आयु और बल को धारण करता है। (सः) वह (देवानाम् अपि) विद्वानों और अनेक मनुष्यों के भी (गो-पीथे) रक्षा के पद पर (अस्तु) हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्द:– १, ३ निचृत् त्रिष्टुप्। २, ४ त्रिष्टुप्। ६—८ विराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृज्जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
विषय
यज्ञशीलता व प्राणायाम
पदार्थ
[१] (यः) = जो व्यक्ति (उदृचि) = उद्गत ऋचाओंवाले, जिसमें ऋचाओं का, मन्त्रों का उच्चारण हो रहा है ऐसे (यज्ञे) = यज्ञ में (अध्वरेष्ठाः) = हिंसारहित कर्मों में स्थित होनेवाला बनता है, अर्थात् जो यज्ञों में प्रवृत्त रहता है (न) = और [न इति चार्थे] (मानुषः) = विचारशील बनकर (मरुद्भ्यः) = प्राणों के लिये (ददाशत्) = अपने को दे डालता है, अर्थात् प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है, (स) = वह (वयः) = उत्तम आयुष्य को दधते धारण करता है। उस आयुष्य को जो (रेवत्) = उत्तम ज्ञान के धनवाला है और (सुवीरम्) = उत्तम वीरता से सम्पन्न है। [२] (स) = वह यज्ञशील प्राणसाधक पुरुष (देवानाम्) = देवों के (गोपीथे) = [गोपीथ protection] रक्षण में (अपि) = भी (अस्तु) = हो । सब देव इसके अनुकूल होते हैं और यह उत्तरोत्तर उन्नति करता हुआ दिव्यता का अपने में वर्धन करता है ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञशीलता व प्राणसाधना मनुष्य को ज्ञानधन, वीरता व दिव्यता प्राप्त कराती हैं।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यः-अध्वरेष्ठाः-मानुषः) योऽध्यात्ममार्गवति योगसमाधौ स्थितो जनः (उदृचि) उत्कृष्टस्तुतिमति यज्ञे-ज्ञानयज्ञे (न ददाशत्) सम्प्रति स्वात्मानं ददाति (मरुद्भ्यः-सुवीरम्-रेवत्-वयः-दधते) स शोभनप्राणयुक्तं मोक्षैश्वर्य्यवज्जीवनं धारयति “दध धारणे” [भ्वादि] तथा (सः-गोपीथे-देवानाम्-अस्तु) स खलु सोमपाने “गोपीथाय सोमपानाय” [निरु० १०।३६] शान्तपरमानन्दरस-पाने जीवन्मुक्तानां मध्ये भवतु ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The man established in Vedic chant and yajnic programmes of creation and development who gives for yajna and also gives to the brilliant and versatile Maruts achieves good health and long age blest with plenty of wealth and noble children and he also enjoys the protection of divinities on the path of rectitude.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यात्म मार्गी चालणारा मनुष्य जीवनमुक्ताच्या संगतीने योगाभ्यास व ईश्वर स्तुती करून मोक्षानंद प्राप्त करण्याचा अधिकारी बनतो. ॥७॥
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