Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 77 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यु॒ष्माकं॑ बु॒ध्ने अ॒पां न याम॑नि विथु॒र्यति॒ न म॒ही श्र॑थ॒र्यति॑ । वि॒श्वप्सु॑र्य॒ज्ञो अ॒र्वाग॒यं सु व॒: प्रय॑स्वन्तो॒ न स॒त्राच॒ आ ग॑त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ष्माक॑म् । बु॒ध्ने । अ॒पाम् । न । याम॑नि । वि॒थु॒र्यति॑ । न । म॒ही । श्र॒थ॒र्यति॑ । वि॒श्वऽप्सुः॑ । य॒ज्ञः । अ॒र्वाक् । अ॒यम् । सु । वः॒ । प्रय॑स्वन्तः । न । स॒त्राचः॑ । आ । ग॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युष्माकं बुध्ने अपां न यामनि विथुर्यति न मही श्रथर्यति । विश्वप्सुर्यज्ञो अर्वागयं सु व: प्रयस्वन्तो न सत्राच आ गत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युष्माकम् । बुध्ने । अपाम् । न । यामनि । विथुर्यति । न । मही । श्रथर्यति । विश्वऽप्सुः । यज्ञः । अर्वाक् । अयम् । सु । वः । प्रयस्वन्तः । न । सत्राचः । आ । गत ॥ १०.७७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 10; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] हे [मरुतः] प्राणो ! (युष्माकं बुध्ने) = तुम्हारे आधार में, (अपां यामनि) = रेतः कणों के रूप में जलों के शरीर में गति करने पर मही यह पृथिवी रूप शरीर (न विथुर्यति) = [व्यथते ] रोगों से पीड़ित नहीं होता और (न श्रथर्यति) = नांही क्षीणशक्तिवाला होता है। प्राणसाधना से सोमकणों की [वीर्यकणों का] शरीर में ऊर्ध्वगति होती है। इस सोमशक्ति के शरीर में व्यापन से शरीर रोगाक्रान्त नहीं होता और शरीर की शक्ति क्षीण नहीं होती । [२] हे मरुतो ! (अयम्) = यह (अर्वाग्) = शरीर के अन्दर चलनेवाला (विश्वप्सुः) = विश्वरूप (सु यज्ञः) = उत्तम यज्ञ (व:) = आपका ही है । शरीर के अन्दर होनेवाली सब क्रियाएँ इन मरुतों की कृपा से ही होती हैं। भोजन का ग्रहण पाचन तथा धातुओं का सर्वत्र नयन आदि सब क्रियाएँ इन प्राणों के ही अधीन हैं। इसलिए हे (सत्राचः) = मिलकर शरीर में गति करनेवाले मरुतो ! (प्रयस्वन्तः) = उत्तम हविरूप अन्नवाले होते हुए आप (नः आगत) = हमें प्राप्त होवो । प्राणशक्ति के वर्धन के लिये हम उत्तम सात्त्विक अन्नों का ही प्रयोग करें। इन अन्नों से बढ़ी हुई शक्तिवाले प्राण हमारे जीवन को भी सात्त्विक बनायेंगे। उसी समय हमारा जीवन यज्ञमय हो पायेगा ।

    भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधना से सोमरक्षण होकर शरीर न रोगाक्रान्त होता है, न क्षीणशक्ति । उस समय हमारा जीवन यज्ञमय हो जाता है। शरीर के अन्दर चलनेवाली क्रियाएँ सब यज्ञ का रूप धारण कर लेती है ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top