ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 85/ मन्त्र 2
सोमे॑नादि॒त्या ब॒लिन॒: सोमे॑न पृथि॒वी म॒ही । अथो॒ नक्ष॑त्राणामे॒षामु॒पस्थे॒ सोम॒ आहि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठसोमे॑न । आ॒दि॒त्याः । ब॒लिनः॑ । सोमे॑न । पृ॒थि॒वी । म॒ही । अथो॒ इति॑ । नक्ष॑त्राणाम् । ए॒षाम् । उ॒पऽस्थे॑ । सोमः॑ । आऽहि॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमेनादित्या बलिन: सोमेन पृथिवी मही । अथो नक्षत्राणामेषामुपस्थे सोम आहितः ॥
स्वर रहित पद पाठसोमेन । आदित्याः । बलिनः । सोमेन । पृथिवी । मही । अथो इति । नक्षत्राणाम् । एषाम् । उपऽस्थे । सोमः । आऽहितः ॥ १०.८५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 85; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - देवत्व, शक्ति व विज्ञान
पदार्थ -
[१] (सोमेन) = गत मन्त्र की समाप्ति पर कहे गये सोम के रक्षण से (आदित्याः) = अदीना देवमाता के पुत्र, अर्थात् देवता (बलिनः) = बलवाले होते हैं । वस्तुतः सोमरक्षण से ही वे देव बनते हैं। देवताओं का सोमपान प्रसिद्ध है। यह कोई बाह्य रस नहीं है। शरीर में उत्पन्न होनेवाला ओषधियों का सारभूत सोम यह वीर्य ही है। इसका रक्षण देवों को शक्ति देता है। [२] (सोमेन)= सोम से ही (पृथिवी) = यह शरीररूप पृथिवी (मही) = महनीय व महत्त्वपूर्ण बनती है। शरीर में सब वसुओं निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों का स्थापन इस सोम के द्वारा ही होता है [३] (उ) = और (अथ) = अब (एषां नक्षत्राणां उपस्थे) = इन विविध विज्ञान के नक्षत्रों की उपासना के निमित्त (सोमः) = यह सोम [= वीर्य] (आहितः) = शरीर में स्थापित किया गया है। इस सोम के द्वारा ज्ञानाग्नि तीव्र होती है और मनुष्य अपने मस्तिष्क रूप गगन में ज्ञान के नक्षत्रों का उदय कर पाता है।
भावार्थ - भावार्थ- सोमरक्षण के तीन लाभ हैं- [क] हृदय में देववृत्ति का उदय, [ख] शरीर में शक्ति का स्थापन, [ग] मस्तिष्क में विज्ञान नक्षत्रों का उदय ।
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