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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 92 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शार्यातो मानवः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    इ॒मम॑ञ्ज॒स्पामु॒भये॑ अकृण्वत ध॒र्माण॑म॒ग्निं वि॒दथ॑स्य॒ साध॑नम् । अ॒क्तुं न य॒ह्वमु॒षस॑: पु॒रोहि॑तं॒ तनू॒नपा॑तमरु॒षस्य॑ निंसते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । अ॒ञ्जः॒ऽपाम् । उ॒भये॑ । अ॒कृ॒ण्व॒त॒ । ध॒र्माण॑म् । अ॒ग्निम् । वि॒दथ॑स्य । साध॑नम् । अ॒क्तुम् । न । य॒ह्वम् । उ॒षसः॑ । पु॒रःऽहि॑तम् । त॒नू॒ऽनपा॑तम् । अ॒रु॒षस्य॑ । निं॒स॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममञ्जस्पामुभये अकृण्वत धर्माणमग्निं विदथस्य साधनम् । अक्तुं न यह्वमुषस: पुरोहितं तनूनपातमरुषस्य निंसते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । अञ्जःऽपाम् । उभये । अकृण्वत । धर्माणम् । अग्निम् । विदथस्य । साधनम् । अक्तुम् । न । यह्वम् । उषसः । पुरःऽहितम् । तनू३ऽनपातम् । अरुषस्य । निंसते ॥ १०.९२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] (इमम्) = इस (अञ्जस्पाम्) = [अञ्जसापाति] ठीक-ठीक रक्षण करनेवाले प्रभु को (उभये) = देव और मनुष्य दोनों ही, सकाम कर्म करनेवाले मर्त्य और निष्काम कर्म करनेवाले देव, (अकृण्वत) = अपने हृदयों में स्थापित करते हैं । उस प्रभु को जो (धर्माणम्) = धारण करनेवाले हैं, (अग्निम्) = आगे और आगे ले चलनेवाले हैं, (विदथस्य साधनम्) = ज्ञान को सिद्ध करनेवाले हैं । [२] जो प्रभु (उषसः अक्तुं न) = उषाकाल की प्रकाश की किरण के समान हैं। उस प्रभु के आविर्भूत होते ही हृदय प्रकाश से चमक उठता है । (यह्वम्) = जो महान् हैं, अथवा 'यातश्च हूतश्च' जो गाये जाते हैं और पुकारे जाते हैं. अन्ततोगत्वा सब उस प्रभु की ही शरण में जाते हैं। (पुरोहितम्) = जो प्रभु हमारे सामने [पुर: ] आदर्श के रूप से स्थापित हैं [ हितम्], अथवा जो सृष्टि से पहले ही विद्यमान हैं । (अरुषस्य) = [अ- रुष] क्रोधशून्य व्यक्ति के (तनू-न-पातम्) = शरीर को जो नहीं गिरने देनेवाले, उस प्रभु को सब देव व मनुष्य (निंसते) = [ चुम्बयन्ति आश्रयन्ते सा० ] आश्रय करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- वह प्रभु सबका रक्षक, सबके हृदय में निवास करता है, उसकी शरण में रहना चाहिये ।

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