ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
वा॒ज॒यन्नि॑व॒ नू रथा॒न्योगाँ॑ अ॒ग्नेरुप॑ स्तुहि। य॒शस्त॑मस्य मी॒ळ्हुषः॑॥
स्वर सहित पद पाठवा॒ज॒यन्ऽइ॑व । नु । रथा॑न् । योगा॑न् । अ॒ग्नेः । उप॑ । स्तु॒हि॒ । य॒शःऽत॑मस्य । मी॒ळ्हुषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वाजयन्निव नू रथान्योगाँ अग्नेरुप स्तुहि। यशस्तमस्य मीळ्हुषः॥
स्वर रहित पद पाठवाजयन्ऽइव। नु। रथान्। योगान्। अग्नेः। उप। स्तुहि। यशःऽतमस्य। मीळ्हुषः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
विषय - यशस्तम-मीढ्वान्
पदार्थ -
१. (नु) = अब (अग्नेः) = उस प्रभु के-उस प्रभु से प्राप्त कराये गये, इन (रथान्) = शरीररूप रथों को (योगान्) = और इन रथों में जुते घोड़ों को (वाजयन् इव) = शक्तिशाली सा बनाता हुआ (उपस्तुहि) = उसका स्तवन करनेवाला बन । मन्त्र में 'इव' शब्द का प्रयोग यह संकेत करता है कि इनको शक्तिशाली जीव ने क्या बनाना है, शक्ति प्राप्त कराना तो प्रभु का ही कार्य है । 'जीव इस शक्ति का अपव्यय न करे' यही पर्याप्त है। प्रभु द्वारा दिये गये शरीर को स्वस्थ शान्ति सम्पन्न रखने से प्रभु का पूजन ही हो जाता है । २. उस प्रभु का तू पूजन कर जो (यशस्तमस्य) = अत्यन्त यशस्वी हैं । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रभु का यशोगान कर रहा है। (मीढुषः) = उस प्रभु का तू पूजन कर जो सब पर सुखों की वर्षा करनेवाले हैं। वस्तुतः स्तोता को चाहिए कि वह भी यशस्वी जीवनवाला बनें, और अन्यों के जीवन को सुखी करनेवाला हो ।
भावार्थ - भावार्थ - प्रभु का वस्तुतः स्तवन वही करता है जो [क] अपने शरीर को जीर्णशक्ति नहीं होने देता, [ख] यशस्वी जीवनवाला बनता है तथा [ग] सब पर सुखों के वर्षण का प्रयत्न करता है।
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