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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - विश्वसामा आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    न्य१॒॑ग्निं जा॒तवे॑दसं॒ दधा॑ता दे॒वमृ॒त्विज॑म्। प्र य॒ज्ञ ए॑त्वानु॒षग॒द्या दे॒वव्य॑चस्तमः ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । अ॒ग्निम् । जा॒तऽवे॑दसम् । दधा॑त । दे॒वम् । ऋ॒त्विज॑म् । प्र । य॒ज्ञः । ए॒तु॒ । आ॒नु॒षक् । अ॒द्य । दे॒वव्य॑चःऽतमः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न्य१ग्निं जातवेदसं दधाता देवमृत्विजम्। प्र यज्ञ एत्वानुषगद्या देवव्यचस्तमः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। अग्निम्। जातऽवेदसम्। दधात। देवम्। ऋत्विजम्। प्र। यज्ञः। एतु। आनुषक्। अद्य। देवव्यचःऽतमः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [१] हे विश्वसामन्! आपको हम (अग्निम्) = अग्रणी, (जातवेदसम्) = सर्वज्ञ, देवम् प्रकाशमय, (ऋत्विजम्) = प्रत्येक ऋतु में उपासनीय प्रभु को (निदधाता) = अपने हृदय में स्थापित करें। [२] (अद्य) = आज हमें (यज्ञः) = यज्ञ (आनुषक्) = निरन्तर प्र एतु प्रकर्षेण प्राप्त हो । यह यज्ञ (देवव्यचस्तमः) = देवों में अधिक से अधिक व्याप्तिवाला है। हमारे जीवनों में दिव्यगुणों का संचार करता हुआ यज्ञ हमें देव बनाता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का हृदयों में ध्यान करें। यज्ञों को अपनाएँ। ये यज्ञ ही हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करेंगे।

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