ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 8
तव॑ द्यु॒मन्तो॑ अ॒र्चयो॒ ग्रावे॑वोच्यते बृ॒हत्। उ॒तो ते॑ तन्य॒तुर्य॑था स्वा॒नो अ॑र्त॒ त्मना॑ दि॒वः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । द्यु॒ऽमन्तः॑ । अ॒र्चयः॑ । ग्रावा॑ऽइव । उ॒च्य॒ते॒ । बृ॒हत् । उ॒तो इति॑ । ते॒ । त॒न्य॒तुः । य॒था॒ । स्वा॒नः । अ॒र्त॒ । त्मना॑ । दि॒वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तव द्युमन्तो अर्चयो ग्रावेवोच्यते बृहत्। उतो ते तन्यतुर्यथा स्वानो अर्त त्मना दिवः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठतव। द्युऽमन्तः। अर्चयः। ग्रावाऽइव। उच्यते। बृहत्। उतो इति। ते। तन्यतुः। यथा। स्वानः। अर्त। त्मना। दिवः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 8
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
विषय - उस महान् गुरु के शब्दों को सुनें
पदार्थ -
१. हे प्रभो ! (तव) = आपकी (अर्चयः) = ज्ञान ज्वालाएँ (द्युमन्तः) = अत्यन्त ज्योतिर्मय है। आप (बृहत्) = सर्वमहान् (ग्रावा इव) = उपदेष्टा [गुरु] की तरह (उच्यते) = कहे जाते हैं 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' । आप ही गुरुओं के गुरु-सर्वप्रथम गुरु हैं। २. आपके ज्ञान को किसी और से प्राप्त नहीं करते। (उत) = और (त्मना दिवः) = स्वयं ज्योतिर्मय ने आपका (स्वानः) = शब्द इस प्रकार (अर्त) = उद्गत होता है (यथा) = जैसे (उ) = निश्चय से (तन्यतुः) = मेघध्वनि हो। मेघध्वनि के समान गर्जनावाले इन शब्दों को भी हम अज्ञानी नहीं सुन पाते ।
भावार्थ - भावार्थ- उस दीप्तिमय प्रभु के कल्याणकर शब्दों को हम सुननेवाले बनें ।
इस भाष्य को एडिट करें