ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 25/ मन्त्र 9
ए॒वाँ अ॒ग्निं व॑सू॒यवः॑ सहसा॒नं व॑वन्दिम। स नो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विषः॒ पर्ष॑न्ना॒वेव॑ सु॒क्रतुः॑ ॥९॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । अ॒ग्निम् । व॒सु॒ऽयवः॑ । स॒ह॒सा॒नम् । व॒व॒न्दि॒म॒ । सः । नः॒ । विश्वा॑ । अति॑ । द्विषः॑ । पर्ष॑त् । ना॒वाऽइ॑व । सु॒ऽक्रतुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवाँ अग्निं वसूयवः सहसानं ववन्दिम। स नो विश्वा अति द्विषः पर्षन्नावेव सुक्रतुः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठएव। अग्निम्। वसुऽयवः। सहसानम्। ववन्दिम। सः। नः। विश्वाः। अति। द्विषः। पर्षत्। नावाऽइव। सुऽक्रतुः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 25; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
विषय - 'द्वेष समुद्र तारणी' नाव
पदार्थ -
१. (एवम्) = इस प्रकार (वसूयवः) = सब वसुओं को प्राप्त करने की कामनावाले हम (सहसानम् अग्निम्) = हमारे बल की तरह आचरण करते हुए प्रभु को (ववन्दिम) = वन्दना करते हैं। जब हम प्रभु की वन्दना करते हैं, तो प्रभु के बल से बल सम्पन्न होते हैं। इसी बल के द्वारा हम सब वसुओं को प्राप्त होनेवाले होते हैं । २. (सः) = वे (सुक्रतुः) = शोभनकर्मा प्रभु (नः) = हमें (विश्वाः) = सब (द्विषः) = द्वेषों से इस प्रकार (अतिपर्षत्) = पार करें, (इव) = जैसे कि (नावा) = नौका से सिन्धु को पार करते हैं। नाव से समुद्र को पार करने के समान हम (सुक्रतु) = प्रभु को द्वेषसागर से पार करने की नाव बनायें।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु की वन्दना करें। प्रभु हमें शक्तिसम्पन्न बनाकर सब द्वेषों से दूर करें 1 अगले सूक्त में 'वसूयवः आत्रेयः' ही ऋषि है, देवता भी 'अग्नि' ही है -
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