ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 19
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - रथवीतिर्दाल्भ्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ष क्षे॑ति॒ रथ॑वीतिर्म॒घवा॒ गोम॑ती॒रनु॑। पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितः ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । क्षे॒ति॒ । रथ॑ऽवीतिः । म॒घऽवा॑ । गोऽम॑तीः । अनु॑ । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष क्षेति रथवीतिर्मघवा गोमतीरनु। पर्वतेष्वपश्रितः ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठएषः। क्षेति। रथऽवीतिः। मघऽवा। गोऽमतीः। अनु। पर्वतेषु। अपऽश्रितः ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 19
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
विषय - मघवा [ज्ञानैश्वर्यवाला] रथवीति
पदार्थ -
[१] (एषः) = यह (रथवीतिः) = अपने शरीर-रथ को कान्त बनानेवाला (गोमती: अनु) = ज्ञान की वाणियोंवाली इन वेदमाताओं के अनुसार जीवन को बनाता हुआ और अतएव (मघवा) = ज्ञानैश्वर्यवाला होकर (क्षेति) = निवास को उत्तम बनाता हुआ गति करता है। [२] इस प्रकार जीवन को व्यतीत करता हुआ यह (पर्वतेषु) = अविद्या पर्वतों में (अपश्रितः) = अपश्रित होता है। यह अविद्या से सदा दूर रहता है। 'अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश' इन पाँच पर्वोंवाली यह अविद्या 'पर्वत' है। 'रथवीति' इससे सदा दूर रहता है और ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करनेवाला 'मघवा' होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञान की वाणियोंवाली वेदमाता के अनुसार चलकर हम ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करें, अविद्या पर्वत से सदा दूर रहें। तभी हमारा यह शरीर-रथ कान्त बनेगा और हमारा जीवन उत्तम होगा। यह वेदानुकूल जीवन बितानेवाला व्यक्ति 'श्रुतिवद्' कहलाता है, श्रुति का ज्ञाता। यह आत्रेय होता है, काम-क्रोध-लोभ से परे । यह मित्र व वरुण की आराधना करता हुआ कहता है -
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