ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 19
ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः
देवता - रथवीतिर्दाल्भ्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒ष क्षे॑ति॒ रथ॑वीतिर्म॒घवा॒ गोम॑ती॒रनु॑। पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितः ॥१९॥
स्वर सहित पद पाठए॒षः । क्षे॒ति॒ । रथ॑ऽवीतिः । म॒घऽवा॑ । गोऽम॑तीः । अनु॑ । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एष क्षेति रथवीतिर्मघवा गोमतीरनु। पर्वतेष्वपश्रितः ॥१९॥
स्वर रहित पद पाठएषः। क्षेति। रथऽवीतिः। मघऽवा। गोऽमतीः। अनु। पर्वतेषु। अपऽश्रितः ॥१९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 19
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा पर्वतेष्वपश्रितः सूर्य्यो गोमतीरनु वर्त्तयति तथैवैष रथवीतिर्मघवा क्षेति ॥१९॥
पदार्थः
(एषः) (क्षेति) निवसति (रथवीतिः) यो रथेन व्याप्नोति मार्गम् (मघवा) परमधनवान् (गोमतीः) गावः किरणा विद्यन्ते यासु गतिषु ताः (अनु) (पर्वतेषु) मेघेषु (अपश्रितः) योऽपश्रयति सः ॥१९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सूर्य्यो मेघनिमित्तं भूत्वा पृथक्स्वरूपोऽस्ति तथैव विद्वान् सर्वत्र वासं कुर्वन्नपि निर्म्मोहो भवतीति ॥१९॥ अत्र प्रश्नोत्तरमरुदादिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकषष्टितमं सूक्तमेकोनत्रिंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (2)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (पर्वतेषु) मेघों में (अपश्रितः) आश्रित सूर्य्य (गोमतीः) किरणें विद्यमान जिनमें ऐसे गमनों को (अनु) अनुकूल वर्त्ताता है, वैसे (एषः) यह (रथवीतिः) रथ से मार्ग को व्याप्त होनेवाला (मघवा) अत्यन्त धनवान् जन (क्षेति) निवास करता है ॥१९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे सूर्य्य मेघ का कारण होकर पृथक्स्वरूप है, वैसे ही विद्वान् सर्वत्र वास करता हुआ भी मोहरहित होता है ॥१९॥ इस सूक्त में प्रश्न, उत्तर और वायु आदि के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह इकसठवाँ सूक्त और उनतीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
रथी का सामर्थ्य ।
भावार्थ
भा०- ( एष: ) यह ( रथवीतिः ) रथों से प्राप्त होने वाला (मघवा ) उत्तम धनधान्य सम्पन्न पुरुष ( गोमती : अनु ) उत्तम भूमियों और वाणियों से युक्त दाराओं को प्राप्त कर ( अनुक्षेति ) धर्मानुकूल होकर रहे और (पर्वतेषु) पर्वतों वा मेघों के तुल्य उत्तम उत्तम, ऊंचे और आकाश व्यापी भवनों और यानों में ( अप-श्रितः ) स्थित एवं दूर देशों तक जाने हारा हो । एकोनत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ १–४, ११–१६ मरुतः । ५-८ शशीयसी तरन्तमहिषी । पुरुमीळहो वैददश्विः । १० तरन्तो वैददश्विः । १७ – १९ रथवीतिर्दाल्भ्यो देवताः ॥ छन्दः – १ –४, ६–८, १०– १९ गायत्री । ५ अनुष्टुप् । ९ सतोबृहती ॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघाचे कारण असूनही वेगळा असतो. तसा विद्वान सर्वत्र निवास करूनही मोहरहित असतो. ॥ १९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This man of yajnic action, honour and excellence travelling by chariot straight like rays of the sun across the clouds lives in the world and reaches his destination without difficulty.
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