ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 6
उ॒त त्वा॒ स्त्री शशी॑यसी पुं॒सो भ॑वति॒ वस्य॑सी। अदे॑वत्रादरा॒धसः॑ ॥६॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्वा॒ । स्त्री । शशी॑यसी । पुं॒सः । भ॒व॒ति॒ । वस्य॑सी । अदे॑वऽत्रात् । अ॒रा॒धसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्वा स्त्री शशीयसी पुंसो भवति वस्यसी। अदेवत्रादराधसः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्वा। स्त्री। शशीयसी। पुंसः। भवति। वस्यसी। अदेवऽत्रात्। अराधसः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स्त्रीपुरुषार्थोपदेशमाह ॥
अन्वयः
हे पुरुष ! या स्त्री अदेवत्रादराधसः पृथग्भूत्वा पुंसो वस्यस्युत शशीयसी भवति त्वा सुखयति तां त्वं सुखय ॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (त्वा) त्वाम् (स्त्री) (शशीयसी) अतिशयेन दुखं प्लावयन्ती (पुंसः) पुरुषस्य (भवति) (वस्यसी) अतिशयेन वसुमती (अदेवत्रात्) देवान् त्रायते यस्मात्तद्विरुद्धात् (अराधसः) अधनात् ॥६॥
भावार्थः
सैव स्त्री पत्या माननीया भवति याऽन्यायाचरणादपूज्यपूजनाद्विरहा सती पतिं सुखयति सैव पत्या सततं सत्कर्त्तव्यास्ति ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर स्त्री के पुरुषार्थ उपदेश को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे पुरुष ! जो (स्त्री) स्त्री (अदेवत्रात्) विद्वानों की रक्षा करता है जिससे उससे विरुद्ध (अराधसः) धनविरुद्ध पदार्थ से पृथक् होकर (पुंसः) पुरुष की (वस्यसी) अत्यन्त धनवाली (उत) और (शशीयसी) अत्यन्त दुःख को दूर करनेवाली (भवति) होती और (त्वा) आपको सुखी करती है, उसको आप सुखयुक्त करो ॥६॥
भावार्थ
वही स्त्री पति से आदर करने योग्य होती है जो अन्यायाचरण और नहीं आदर करने योग्य के आदर करने से रहित हुई पति को सुखी करती है, वही पति से निरन्तर आदर करने योग्य होती है ॥६॥
विषय
उत्तम स्त्री का वर्णन ।
भावार्थ
भा०-(त्वा) वह स्त्री जो ( वस्यसी ) उत्तम धन सम्पन्न है वह (पुंसः शशीयसी भवति ) पुरुष को समस्त संकटों से पार करनेहारी, प्रशंसनीय है । वह (अदेवत्रात् ) जो मनुष्य देव अर्थात् अपने भीतर उत्तम उज्वल गुणों और विद्वान् पुरुषों की रक्षा नहीं करता, और ( अराधसः ) आराधना नहीं करता वा धन से हीन है उससे पृथक् रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ १–४, ११–१६ मरुतः । ५-८ शशीयसी तरन्तमहिषी । पुरुमीळहो वैददश्विः । १० तरन्तो वैददश्विः । १७ – १९ रथवीतिर्दाल्भ्यो देवताः ॥ छन्दः – १ –४, ६–८, १०– १९ गायत्री । ५ अनुष्टुप् । ९ सतोबृहती ॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
स्त्री यः पुरुष ?
पदार्थ
[१] (उत) = और (त्वा) = वह एक (शशीयसी) = प्लुतगतिवाली, निरन्तर कार्यों में प्रवृत्त, आलस्यशून्य स्त्री (पुंसः) = उस पुरुष से वस्यसी वही उत्तम निवासवाली है, जो पुरुष कि (अदेवत्रात्) = [येन देवा: न त्रायन्ते] जो अपने अन्दर दिव्यगुणों का रक्षण नहीं करता और (अराधसः) = जो दान योग्य धन से रहित, अर्थात् लोभी है। [२] यदि एक पुरुष है जो न किसी दिव्यगुण से युक्त है और लोभी है, और एक स्त्री है, जो निरन्तर कर्त्तव्य कर्मों में प्रवृत्त है तो इन दोनों में स्त्री ही निवास को उत्तम बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें दिव्यगुणों से दूर लोभीवृत्तिवाला पुरुष न बनाकर कर्त्तव्यकर्मपरायणा स्त्री का ही शरीर दें जिससे हम अपने निवास को उत्तम बनानेवाले हों। अगले मन्त्र में इस शशीयसी का चित्रण देखिये-
मराठी (1)
भावार्थ
जी अन्यायाचरण करीत नाही व अयोग्य माणसांचा आदर करत नाही. पतीला सुखी करते ती पतीकडून सत्कार व आदर प्राप्त करण्यायोग्य असते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O man, the woman deserves your respect and reverence and love because she remains a generous and graceful accomplisher in the home in spite of the man’s want of piety and success.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about the teaching of labour about the work is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O man! that woman who being *separate from a person who is a Godless or miserly man, makes a man prosperous and takes him across all misery, and this makes you happy. You should also gladden her.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That woman only is to be respected well by her husband, who being away from the men of unjust conduct and poor- and from respecting those why are not fit for being respected, gladdens her husband.
Foot Notes
(शशीयसी) अतिशयेन दुःखं प्लावयन्ती । शशीयसी - इति शश- त्प्लुत गतौ = Removing all misery. (अराधसः) अधनम् राध इति (NG 2, 10) = Poor.
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