ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 10
यो मे॑ धेनू॒नां श॒तं वैद॑दश्वि॒र्यथा॒ दद॑त्। त॒र॒न्तइ॑व मं॒हना॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठयः । मे॒ । धे॒नू॒नाम् । श॒तम् । वैद॑त्ऽअश्विः । यथा॑ । दद॑त् । त॒र॒न्तःऽइ॑व । मं॒हना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मे धेनूनां शतं वैददश्विर्यथा ददत्। तरन्तइव मंहना ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठयः। मे। धेनूनाम्। शतम्। वैदत्ऽअश्विः। यथा। ददत्। तरन्तःऽइव। मंहना ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
यो वैददश्विर्मे धेनूनां शतं ददद्यथा मंहना तरन्तइव दुःखपारं नयति स एव स्वामी भवितुमर्हति ॥१०॥
पदार्थः
(यः) (मे) मम (धेनूनाम्) गवाम् (शतम्) (वैददश्विः) योऽश्वान् विन्दति स विददश्वस्तस्यापत्यं वैददश्विः (यथा) (ददत्) ददाति (तरन्तइव) तरन्त इव (मंहना) महत्या नौकया ॥१०॥
भावार्थः
यो मनुष्यः शतदः सहस्रदो भवति दोग्ध्रीणां गवां रक्षणं करोति स नौकया नदीं समुद्रं वा तरति तथैव मेधाविनौ स्त्रीपुरुषौ दुःखसागरं धर्म्माचरणेन तरतः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (वैददश्विः) घोड़ों के ज्ञाता का पुत्र (मे) मेरी (धेनूनाम्) गौओं के (शतम्) सैकड़े को (ददत्) देता है (यथा) जैसे (मंहना) बड़ी नौका से (तरन्तइव) तैरते हुओं के समान दुःख के पार पहुँचाता है, वही स्वामी होने के योग्य होता है ॥१०॥
भावार्थ
जो मनुष्य सैकड़ों वा हजारों का देनेवाला होता है और दुग्ध देनेवाली गौओं की रक्षा करता है, वह नौका से नदी वा समुद्र को तरता है, वैसे ही बुद्धिमान् स्त्री और पुरुष दुःखरूपी सागर को धर्म के आचरण से तरते हैं ॥१०॥
विषय
संसार सागर से पार उतारने वाले साथी की प्रशंसा ।
भावार्थ
भा०- (यः) जो पुरुष ( मंहना ) बड़े भारी नाव द्वारा (तरन्तः-इव) समुद्र के पार उतार देने वाले नाविक के समान अपने महान् सामर्थ्य या दानशीलता से संसार के सागर से पार उतारने हारा होकर (वैददश्विः) अश्वों इन्द्रियों को अपने वश करता है वह जितेन्द्रिय पुरुष ही ( मे ) मुझे ( धेनूनां शतं ) मानो सैकड़ों दुधार गौवें तथा उत्तम २ वाणियां देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ १–४, ११–१६ मरुतः । ५-८ शशीयसी तरन्तमहिषी । पुरुमीळहो वैददश्विः । १० तरन्तो वैददश्विः । १७ – १९ रथवीतिर्दाल्भ्यो देवताः ॥ छन्दः – १ –४, ६–८, १०– १९ गायत्री । ५ अनुष्टुप् । ९ सतोबृहती ॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
वैददश्विः तरन्तः
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (मे) = मेरे लिये (धेनूनाम्) = ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणीरूप गौओं को (शतम्) = शतवर्ष पर्यन्त (यथा) = ठीक-ठीक 'याथातथ्यतः ' (ददत्) = देते हैं, वे प्रभु मेरे लिये 'वैददश्विः'= उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले हैं। इन इन्द्रियों से ही तो मैं उस ज्ञानदुग्ध को ग्रहण करने की क्षमता प्राप्त करता हूँ। [२] वे प्रभु (मंहना) = मंहनीय धनों को शतवर्ष-पर्यन्त मेरे लिये देते हुए (तरन्तः इव) = मुझे भवसागर से तरानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें शतवर्षपर्यन्त ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेद धेनुओं को तथा मंहनीय धनों को प्राप्त कराते हैं। वेद धेनुओं से हम उस सर्वव्यापक प्रभु [अश् व्याप्तौ] को जानते हुए 'वैददश्वि' बनते हैं और धनों से सांसारिक आवश्यकताओं को पूर्ण करते हुए 'तरन्त' बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस शेकडो किंवा हजारोंचा दाता असतो, दुभत्या गाईंचे रक्षण करतो, तो नौकेने नदी किंवा समुद्र तरून जातो. तसेच बुद्धिमान स्त्री-पुरुष दुःखरूपी सागर धर्माच्या आचरणाने तरून जातात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Hail to him, disciple of a specialist of transport, who gives me a hundred gifts of lands and cows and forms of knowledge and takes me across the seas as by a mighty boat.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of husbands and wives are highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
He alone can be a true master who being the son of the possessor of good horses gives me a hundred cows and who takes me across the ocean of misery like the big boat or steamer taking across the river or ocean.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As a man who is giver of hundreds or thousands of articles and who protects the cows, goes across the river or ocean with big steamer. In the same manner, wise husband and wife go across the ocean of misery by the observance of righteous conduct.
Translator's Notes
विदुल- लाभे । इन्द्रियाणिहयानाहुः (कठोपनिषद्) So by Ashvas the meaning of the senses also can be taken. In that case, it may mean a man of perfect self-control. मह -पूजायाम् (भ्वा० ) । It was not correct on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and Prof. Maxmuller to take the words 'Shyāvāshva and Vidadashvi Purumidha, as Proper Nouns and names of some sages, as it is against the fundamental principle of the Vedic Terminology, Nighantu and Nisukta, as pointed out several times earlier.
Foot Notes
(वैददशिवः:) योष्वान् विन्दति स विदद्श्वस्तस्यापत्यंवैदद्श्विः = The son of man who is possessor of good horses. (महना) महत्या नौकया । = With big boat or steamer.
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