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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स सर्गे॑ण॒ शव॑सा त॒क्तो अत्यै॑र॒प इन्द्रो॑ दक्षिण॒तस्तु॑रा॒षाट्। इ॒त्था सृ॑जा॒ना अन॑पावृ॒दर्थं॑ दि॒वेदि॑वे विविषुरप्रमृ॒ष्यम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । सर्गे॑ण । शव॑सा । त॒क्तः । अत्यैः॑ । अ॒पः । इन्द्रः॑ । द॒क्षि॒ण॒तः । तु॒रा॒षाट् । इ॒त्था । सृ॒जा॒नाः । अन॑पऽवृत् । अर्थ॑म् । दि॒वेऽदि॑वे । वि॒वि॒षुः॒ । अ॒प्र॒ऽमृ॒ष्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स सर्गेण शवसा तक्तो अत्यैरप इन्द्रो दक्षिणतस्तुराषाट्। इत्था सृजाना अनपावृदर्थं दिवेदिवे विविषुरप्रमृष्यम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। सर्गेण। शवसा। तक्तः। अत्यैः। अपः। इन्द्रः। दक्षिणतः। तुराषाट्। इत्था। सृजानाः। अनपऽवृत्। अर्थम्। दिवेऽदिवे। विविषुः। अप्रऽमृष्यम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] (सः) = वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (सर्गेण) = [relenquishment] त्याग से व (शवसा) = बल से (तक्ता) = संगत हुआ हुआ (अत्यैः) = सततगमन कुशल इन्द्रियाश्वों से (अपः) = कर्मों को (दक्षिणतः) = सरलता व उदारता से करता हुआ (तुराषाट्) = हिंसक शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है। [२] (इत्था) = इस प्रकार (सृजाना:) = [सृज to give up] त्याग करते हुए ये जितेन्द्रिय पुरुष (अनपावृत् अर्थम्) = जिससे इस मानव आवर्त में लौटना नहीं होता उस मोक्षरूप अर्थ को (दिवेदिवे) = दिन प्रतिदिन (विविषुः) = प्रविष्ट होते जाते हैं। उस अर्थ को प्राप्त होते हैं जो (अप्रमृष्यम्) = किन्हीं भी लौकिक कामनाओं से क्षोम्य नहीं । अर्थात् जो पद 'शान्त प्रिय व सुन्दर ही सुन्दर' है । होकर, सतत क्रियाशील इन्द्रियाश्वों से उदारता व सरलता

    भावार्थ - भावार्थ- त्याग व बल से युक्त से कार्यों को करते हुए हम शत्रुओं का संहार करें। इस प्रकार त्यागवृत्ति से हम उस मोक्षलोक को प्राप्त करेंगे, जिससे इस मानव आवर्त में फिर लौटना नहीं होता। इस प्रकार त्याग की भावनावाला यह व्यक्ति 'शुनहोत्र' है, 'शुनं सुखं जुहोति' = लोकहित के लिये अपने सुख को त्याग देता है। यह इन्द्र का आराधन करता हुआ कहता है कि -

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