ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
स सर्गे॑ण॒ शव॑सा त॒क्तो अत्यै॑र॒प इन्द्रो॑ दक्षिण॒तस्तु॑रा॒षाट्। इ॒त्था सृ॑जा॒ना अन॑पावृ॒दर्थं॑ दि॒वेदि॑वे विविषुरप्रमृ॒ष्यम् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठसः । सर्गे॑ण । शव॑सा । त॒क्तः । अत्यैः॑ । अ॒पः । इन्द्रः॑ । द॒क्षि॒ण॒तः । तु॒रा॒षाट् । इ॒त्था । सृ॒जा॒नाः । अन॑पऽवृत् । अर्थ॑म् । दि॒वेऽदि॑वे । वि॒वि॒षुः॒ । अ॒प्र॒ऽमृ॒ष्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स सर्गेण शवसा तक्तो अत्यैरप इन्द्रो दक्षिणतस्तुराषाट्। इत्था सृजाना अनपावृदर्थं दिवेदिवे विविषुरप्रमृष्यम् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठसः। सर्गेण। शवसा। तक्तः। अत्यैः। अपः। इन्द्रः। दक्षिणतः। तुराषाट्। इत्था। सृजानाः। अनपऽवृत्। अर्थम्। दिवेऽदिवे। विविषुः। अप्रऽमृष्यम् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! स त्वं यथा सूर्योऽपः सृजति तथा तक्त इन्द्रोऽत्यैर्दक्षिणतः सर्गेण शवसा तुराषाडनपावृत् सन् दिवेदिवेऽप्रमृष्यमर्थमा स्वीकुरु यथा सृजानाः कृत्यं विविषुरित्था कर्त्तव्यानि कर्माणि प्रविश ॥५॥
पदार्थः
(सः) (सर्गेण) संसर्जनीयेन (शवसा) बलेन (तक्तः) प्रसन्नः (अत्यैः) अश्वैरिव वेगवद्भिः (अपः) जलानि (इन्द्रः) परमैश्वर्यप्रदः (दक्षिणतः) दक्षिणपार्श्वात् (तुराषाट्) यस्तुरान् हिंसकान्त्सहते (इत्था) अस्माद्धेतोः (सृजानाः) सुशिक्षिताः (अनपावृत्) यो नापवृणोति (अर्थम्) द्रव्यम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (विविषुः) व्याप्नुवन्ति (अप्रमृष्यम्) अविचारणीयम् ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यो मनुष्योऽधर्मेण कर्त्तव्यमनर्थं न करोति स सूर्य्यवत्प्रकाशितकीर्तिर्भवति यथाऽऽदित्यो वृष्टिं कृत्वा सर्वान् हर्षयति तथैव राजा शुभगुणान् वर्षयित्वा सर्वानानन्दयेदिति ॥५॥ अत्रेन्द्रविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति द्वात्रिंशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् (सः) वह आप जैसे सूर्य्य (अपः) जलों को प्रकट करता है, वैसे (तक्तः) प्रसन्न (इन्द्रः) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले (अत्यैः) घोड़ों के समान वेगवाले पदार्थों से और (दक्षिणतः) दहिने पसवाड़े से (सर्गेण) उत्तम प्रकार प्रकट करने योग्य (शवसा) बल से (तुराषाट्) हिंसकों को सहनेवाले तथा (अनपावृत्) असत्य को नहीं स्वीकार करनेवाले हुए आप (दिवेदिवे) प्रतिदिन (अप्रमृष्यम्) नहीं विचारने योग्य (अर्थम्) द्रव्य को सब ओर से स्वीकार करिये और जैसे (सृजानाः) उत्तम प्रकार शिक्षित जन कृत्य को (विविषुः) व्याप्त होते हैं (इत्था) इस हेतु से कर्त्तव्य कर्म्मों में प्रविष्ट हूजिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य अधर्म्म से करने योग्य अनर्थ को नहीं करता है, वह सूर्य्य के सदृश प्रकाशित यशवाला होता है और जैसे सूर्य्य वृष्टि करके सब को हर्षित करता, वैसे ही राजा शुभगुणों की वर्षा करके सब को आनन्दित करे ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, विद्वान् और राजा के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बत्तीसवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
सेनापति और अध्यक्ष के सेनाओं को नदी-सागर दृष्टान्त से प्राप्त होने का उपदेश ।
भावार्थ
( इन्द्रः सर्गेण तक्तः ) जिस प्रकार विद्युत् वा वायु जल से पूर्ण होकर ( दक्षिणतः अत्यैः ) दक्षिण से वेग से आने वाले मेघों या वायुओं द्वारा ( अपः सृजति ) जलों को बरसाता है और वे ( सृजानाः दिवे दिवे अनपावृत् अर्थं विविषुः ) उत्पन्न होकर दिनों दिन पुनः न लौटने योग्य गन्तव्य सागर को प्राप्त होजाते हैं उसी प्रकार ( सः ) वह वीर ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता पुरुष ( तुराषाट् ) अपने वेगवती सेना वा वेगयुक्त हिंसक भटों से शत्रुओं को विजय करने वाला होकर ( सर्गेण ) प्रजावत् ( शवसा ) सैन्य बल से (तक्तः ) सुप्रसन्न, हृष्ट पुष्ट होकर ( अत्यैः ) वेगवान् अश्वगण सहित ( अपः ) आप्त प्रजावर्ग को प्राप्त करे । ( इत्था ) इस प्रकार से वे ( सृजानाः ) प्राप्त होती हुई प्रजाएं ( दिवेदिवे ) दिनों दिन (अनपावृत् ) प्रत्यक्ष रूप से ( अप्रमृष्यं अर्थं विविषु: ) शत्रु से पराजय न होने वाले शरण योग्य पुरुष को प्राप्त करें । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ भुरिक पंक्ति: । २ स्वराट् पंक्ति:। ३, ५ त्रिष्टुप् । ४ निचृत्त्रिष्टुप् । पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
विषय
त्याग व बल से मोक्ष प्राप्ति
पदार्थ
[१] (सः) = वह (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (सर्गेण) = [relenquishment] त्याग से व (शवसा) = बल से (तक्ता) = संगत हुआ हुआ (अत्यैः) = सततगमन कुशल इन्द्रियाश्वों से (अपः) = कर्मों को (दक्षिणतः) = सरलता व उदारता से करता हुआ (तुराषाट्) = हिंसक शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है। [२] (इत्था) = इस प्रकार (सृजाना:) = [सृज to give up] त्याग करते हुए ये जितेन्द्रिय पुरुष (अनपावृत् अर्थम्) = जिससे इस मानव आवर्त में लौटना नहीं होता उस मोक्षरूप अर्थ को (दिवेदिवे) = दिन प्रतिदिन (विविषुः) = प्रविष्ट होते जाते हैं। उस अर्थ को प्राप्त होते हैं जो (अप्रमृष्यम्) = किन्हीं भी लौकिक कामनाओं से क्षोम्य नहीं । अर्थात् जो पद 'शान्त प्रिय व सुन्दर ही सुन्दर' है । होकर, सतत क्रियाशील इन्द्रियाश्वों से उदारता व सरलता
भावार्थ
भावार्थ- त्याग व बल से युक्त से कार्यों को करते हुए हम शत्रुओं का संहार करें। इस प्रकार त्यागवृत्ति से हम उस मोक्षलोक को प्राप्त करेंगे, जिससे इस मानव आवर्त में फिर लौटना नहीं होता। इस प्रकार त्याग की भावनावाला यह व्यक्ति 'शुनहोत्र' है, 'शुनं सुखं जुहोति' = लोकहित के लिये अपने सुख को त्याग देता है। यह इन्द्र का आराधन करता हुआ कहता है कि -
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो माणूस अधर्माने कर्तव्यात कसूर करीत नाही त्याची कीर्ती प्रकाशाप्रमाणे पसरते व जसा सूर्य वृष्टी करून सर्वांना आनंदित करतो तसेच राजाने शुभगुण कर्माचा वर्षाव करून सर्वांना आनंदित करावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty ruler, instant victor, come happy and jubilant with vibrant new forces of creation, with dynamic pioneers advancing like winds who may, thus, creating, preserving, reconstructing, discovering new goals day by day, move on, realise anew indestructible eternal values and never look back.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a man do—is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! as the sun creates water, so being ever cheerful every day, accept good wealth (in which there is nothing doubtful) in right side (with honest means) with their creative power and with the help of powerful men like horses, subduing the violent foes and never accepting untruth. As highly educated persons know and discharge their duties, so you should also enter into or discharge your duties properly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That person who does not do any work unrighteously and refrains from all evil, becomes glorious and renowned like the sun. As the sun gladdens atl by raining down water, so a king should make all delighted by showering good virtues.
Foot Notes
(तुराषाट्) यस्तुरान् हिंसकान्त्सहते । तूरी-गतित्वरणहिंसनयो: (दिवा) अत्र हिंसार्थ: । = He who subdues the violent persons. (अनपावृत्) यो नापवृणोति । वृञ्-वरणे (स्वा० ) अमनरण्म् असत्यस्वीकरणम् | = He who does not accept or choose untruth.
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