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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्र मि॒त्रयो॒र्वरु॑णयो॒: स्तोमो॑ न एतु शू॒ष्य॑: । नम॑स्वान्तुविजा॒तयो॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मि॒त्रयोः॑ । वरु॑णयोः । स्तोमः॑ । नः॒ । ए॒तु॒ । शू॒ष्यः॑ । नम॑स्वान् । तु॒वि॒ऽजा॒तयोः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मित्रयोर्वरुणयो: स्तोमो न एतु शूष्य: । नमस्वान्तुविजातयो: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मित्रयोः । वरुणयोः । स्तोमः । नः । एतु । शूष्यः । नमस्वान् । तुविऽजातयोः ॥ ७.६६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    पदार्थ- (तुषि-जातयो:) = बहुत-सी विद्याओं में प्रवीण, (मित्रयोः) = परस्पर स्नेही और (वरुणयोः) = गुरु-शिष्य रूप से वरण करनेवाले दोनों का (नमस्वान्) = विनययुक्त व्यवहारवाला, (शूष्यः) = सुखकारी, (स्तोमः) = स्तुति-योग्य उपदेश (नः एतु) = हमें प्राप्त हो ।

    भावार्थ - भावार्थ-विभिन्न विद्याओं के विद्वान् गुरु अपने शिष्यों के प्रति स्नेही भाव रखकर विद्या दान करे। शिष्य भी विनयभाव से गुरुओं द्वारा प्रदत्त विद्या के उपदेश को सुनें। इससे अन्य मनुष्य लोग प्रेरणा लेकर परस्पर छोटे-बड़े के व्यवहार को आचरण में उतारते हैं।

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