ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
ऋषिः - मनुर्वैवस्वतः कश्यपो वा मारीचः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - आर्चीगायत्री
स्वरः - षड्जः
ब॒भ्रुरेको॒ विषु॑णः सू॒नरो॒ युवा॒ञ्ज्य॑ङ्क्ते हिर॒ण्यय॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठब॒भ्रुः । एकः॑ । विषु॑णः । सू॒नरः॑ । युवा॑ । अ॒ञ्जि । अ॒ङ्क्ते॒ । हि॒र॒ण्यय॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
बभ्रुरेको विषुणः सूनरो युवाञ्ज्यङ्क्ते हिरण्ययम् ॥
स्वर रहित पद पाठबभ्रुः । एकः । विषुणः । सूनरः । युवा । अञ्जि । अङ्क्ते । हिरण्ययम् ॥ ८.२९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 36; मन्त्र » 1
विषय - बभ्रुः एकः [सोमः]
पदार्थ -
[१] वह परमात्मा (एकः) = अद्वितीय (बभ्रुः) = सबका भरण करनेवाला है, अकेला ही सबके भरण में समर्थ है। (विषुणः) = वह [विष्वगञ्चनः] सर्वतः गमनवाला है। (सूनरः) = उत्तम नेता है । सब के लिये पथप्रदर्शन करनेवाला है। [२] (युवा) = यह नित्य तरुण है, बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाला है [यु मिश्रणामिश्रणयोः] । यह योगियों के लिये अपने (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय (अञ्जि) = रूप को (अङ्क्ते) व्यक्त करता है।
भावार्थ - प्रभु अद्वितीय भरण करनेवाले, सर्वत्र गतिवाले, उत्तम नेता व नित्य तरुण हैं। योगी लोग इनके ज्योतिर्मय रूप को देखते हैं।
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