ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
आ नो॒ विश्वा॑सु॒ हव्य॒ इन्द्र॑: स॒मत्सु॑ भूषतु । उप॒ ब्रह्मा॑णि॒ सव॑नानि वृत्र॒हा प॑रम॒ज्या ऋची॑षमः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । विश्वा॑सु । हव्यः॑ । इन्द्रः॑ । स॒मत्ऽसु॑ । भू॒ष॒तु॒ । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । सव॑नानि । वृ॒त्र॒ऽहा । प॒र॒म॒ऽज्याः । ऋची॑षमः ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो विश्वासु हव्य इन्द्र: समत्सु भूषतु । उप ब्रह्माणि सवनानि वृत्रहा परमज्या ऋचीषमः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । नः । विश्वासु । हव्यः । इन्द्रः । समत्ऽसु । भूषतु । उप । ब्रह्माणि । सवनानि । वृत्रऽहा । परमऽज्याः । ऋचीषमः ॥ ८.९०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 90; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्माणि सवनानि उप
पदार्थ -
[१] (इन्द्रः) = वह शत्रुसंहारक प्रभु (विश्वासु समत्सु) = सब संग्रामों में (हव्यः) = पुकारने योग्य होते हैं। वे प्रभु (नः) = हमें (आभूषतु) = अलंकृत करनेवाले हों । प्रभु को अपने हृदयों में आसीन करके ही हम शत्रुओं का संहार कर पाते हैं। [२] वे प्रभु सदा (ब्रह्माणि) = ज्ञानपूर्वक की गयी स्तुतिवाणियों के तथा (सवनानि) = यज्ञों के (उप) = समीप होते हैं। प्रभु वहीं होते हैं जहाँ कि स्तवन हो तथा यज्ञ हो। वे प्रभु (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करते हैं। (परमज्याः) = [परमान् जिनाति] अत्यन्त प्रबल शत्रुओं को भी समाप्त करनेवाले हैं। (ऋचीषमः) = [स्तुत्या समः] स्तुतियों से अभिमुखीकरणीय होते हैं। जितना हम प्रभु का स्तवन करते हैं, उतना ही प्रभु के समीप होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- सब संग्रामों में प्रभु ही हमें विजयी बनाते हैं। वे ही हमारे जीवनों को अलंकृत करते हैं। ज्ञान व यज्ञ के द्वारा हम प्रभु को समीपता से प्राप्त होते हैं। प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं।
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