यजुर्वेद - अध्याय 22/ मन्त्र 33
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - आयुरादयो देवता
छन्दः - आद्यस्य भुरिक्कृतिः
स्वरः - निषादः
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आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ऽपा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ व्या॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहो॑दा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ समा॒नो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ वाग्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ मनो॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ऽऽत्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ ब्र॒ह्मा य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ ज्योति॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॒ स्वर्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑ य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ स्वाहा॑॥३३॥
स्वर सहित पद पाठआयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। अ॒पा॒न इत्य॑पऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। व्या॒न इति॑ विऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। उ॒दा॒न इत्यु॑त्ऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। स॒मा॒न इति॑ सम्ऽआ॒नः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। वाग्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। मनः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। आ॒त्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। ब्र॒ह्मा। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। ज्योतिः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। स्वाहा॑ ॥३३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा प्राणो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहापानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा व्यानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहोदानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा समानो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा चक्षुर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा श्रोत्रँ यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा वाग्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा मनो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहात्मा यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ज्योतिर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा स्वर्यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा पृष्ठँ यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा यज्ञो यज्ञेन कल्पताँ स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
आयुः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। प्राणः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। अपान इत्यपऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। व्यान इति विऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। उदान इत्युत्ऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। समान इति सम्ऽआनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। चक्षुः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। श्रोत्रम्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। वाग्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। मनः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। आत्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। ब्रह्मा। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। ज्योतिः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। स्वरिति स्वः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। पृष्ठम्। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा। यज्ञः। यज्ञेन। कल्पताम्। स्वाहा॥३३॥
विषय - उत्तम जीवन
पदार्थ -
१. (आयुः) = सारा जीवन (यज्ञेन) = यज्ञ से (कल्पताम्) = अलंकृत हो और शक्तिसम्पन्न बने । इसके लिए (स्वाहा) = मैं स्वार्थ की भावना का त्याग करूँ। २. (प्राणो यज्ञेन कल्पताम्) = मेरी प्राणशक्ति यज्ञरूप उत्तम कर्मों से सशक्त बने, (स्वाहा) = इसके लिए मैं स्व का त्याग करूँ। ३. (अपानो यज्ञेन कल्पताम्) = यज्ञ से मेरी अपानशक्ति समर्थ बने। (स्वाहा) = इसके लिए मैं स्वार्थ से ऊपर उठूं । ४. (व्यानो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरी व्यानवायु यज्ञ के द्वारा सशक्त बने, इसके लिए मैं स्वार्थ को छोड़नेवाला होऊँ। ५. (उदानो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = कण्ठदेशस्थ अतः उदानवायु यज्ञ से सशक्त बने, अतः मैं स्वार्थ को छोडूं । ६. (समानो यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = शरीर में समता को स्थापित करनेवाली मेरी समानवायु यज्ञ से सशक्त बनें, मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। ७. (चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मैं इसलिए स्व का त्याग करूँ कि मेरी आँख यज्ञ से शक्तिशाली बने। ८. (श्रोत्रं यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरा श्रोत्र यज्ञ के द्वारा शक्तिशाली बने, अतः मैं स्वार्थ को छोड़नेवाला बनूँ। ९. (वाग्यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरी वाणी भी यज्ञ के द्वारा शक्तिशाली बने, इसके लिए मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। १०. (मनो यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मेरा मन यज्ञ से सुभूषित हो व सशक्त बने, अतः मैं स्वार्थ का त्याग करूँ। ११. (आत्मा यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = मैं यज्ञ से सुभूषित व सशक्त बनूँ, अतः मैं स्व का त्याग करता हूँ। १२. (ब्रह्मा यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = चतुर्वेदवेत्ता पुरुष भी यज्ञ से सुभूषित हो, अतः वह स्वार्थ से ऊपर उठे । १३. (ज्योतिः) = आत्मप्रकाश (यज्ञेन) = यज्ञ के द्वारा (कल्पताम्) = सिद्ध हो, (स्वाहा) = इसके लिए हम स्वार्थत्याग करें। १४. (स्वः यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = सुख यज्ञ के द्वारा सिद्ध हो, अतः हम स्वार्थ को छोड़ें। १५. (पृष्ठ यज्ञेन कल्पतां स्वाहा) = 'तेजो ब्रह्मवर्चसं श्रीर्वै पृष्ठानि ' - ए० ६।५ हमारा तेज, ब्रह्मवर्चस व श्री यज्ञ के द्वारा सुभूषित व सशक्त हो, अतः हम स्वार्थ से ऊपर उठें। १६. (यज्ञो यज्ञेन कल्पताम् स्वाहा) = 'यज्ञो वै विष्णु: 'वह यज्ञरूप प्रभु यज्ञ से सिद्ध हो, हमें प्राप्त हो, अतः हम स्वार्थ को छोड़कर जीवन को यज्ञिय बनाते हैं। ('यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा:') = देवता यज्ञ परमात्मा की उपासना यज्ञ से ही करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ-यज्ञ के द्वारा हमारा सारा जीवन, सब इन्द्रियशक्तियाँ, मन व बुद्धि सशक्त होते हैं। इसी से हम प्रभु की पूजा भी कर पाते हैं।
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