यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 27
ऋषिः - सरस्वत्यृषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - स्वराडतिजगती
स्वरः - निषादः
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होता॑ यक्षत्सुब॒र्हिषं॑ पूष॒ण्वन्त॒मम॑र्त्य॒ꣳ सीद॑न्तं ब॒र्हिषि॑ प्रि॒येऽमृतेन्द्रं॑ वयो॒धस॑म्।बृ॒ह॒तीं छन्द॑ऽइन्द्रि॒यं त्रि॑व॒त्सं गां वयो॒ दध॒द्वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥२७॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। सु॒ब॒र्हिष॒मिति॑ सुऽब॒र्हिष॑म्। पू॒ष॒ण्वन्त॒मिति॑ पूष॒ण्ऽवन्त॑म्। अम॑र्त्यम्। सीद॑न्तम्। ब॒र्हिषि॑। प्रि॒ये। अ॒मृता॑। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। बृ॒ह॒तीम्। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। त्रि॒व॒त्समिति॑ त्रिऽव॒त्सम्। गाम्। वयः॑। दध॑त्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥२७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षत्सुबर्हिषठम्पूषण्वन्तममर्त्यँ सीदन्तम्बर्हिषि प्रियेमृतेन्द्रँवयोधसम् । बृहती ञ्छन्दऽइन्द्रियन्त्रिवत्सङ्गाँवयो दधद्वेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। सुबर्हिषमिति सुऽबर्हिषम्। पूषण्वन्तमिति पूषण्ऽवन्तम्। अमर्त्यम्। सीदन्तम्। बर्हिषि। प्रिये। अमृता। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। बृहतीम्। छन्दः। इन्द्रियम्। त्रिवत्समिति त्रिऽवत्सम्। गाम्। वयः। दधत्। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥२७॥
विषय - त्रिवत्स गौः
पदार्थ -
१. (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला (यक्षत्) = अपने साथ उस प्रभु को संगत करता है, जो [क] (सुबर्हिषम्) = उत्तमता से हृदय को वासनाशून्य बनानेवाले हैं, प्रभु नाम-स्मरण के साथ ही हृदय से वासनाएँ नष्ट होनी प्रारम्भ हो जाती हैं, [ख] (पूषण्वन्तम्) = वे प्रभु हमारा उत्तम पोषण करनेवाले हैं [ग] (अमर्त्यम्) = अमरणधर्मा हैं और [घ] (प्रिये) = प्रेम से युक्त, द्वेषादि से शून्य (अमृता) = [अमृते] विषयों के पीछे न मरनेवाले (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में सीदन्तम्-निवासन करते हुए [ङ] (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली, [च] (वयोधसम्) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करानेवाले हैं। २. इस होता को चाहिए कि [क] (बृहतीं छन्दः) = सब प्रकार की वृद्धि की प्रबल भावना को [ख] (इन्द्रियम्) = इन्द्रियों के सामर्थ्य को [ग] (त्रिवत्सं गाम्) = प्रकृति, जीव व परमात्मा तीनों का प्रतिपादन करनेवाली वेदवाणी को [त्रीन् वदति] अथवा ज्ञान, कर्म व उपासना का प्रतिपादन करनेवाली वेदवाणी को [घ] तथा (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (दधत्) = धारण करने के हेतु से (आज्यस्य वेतु) = शक्ति का पान करे। ३. हे (होतः) = दानपूर्वक अदन करनेवाले जीव ! तू (यज) = यज्ञशील बन। दान देनेवाला बनकर प्रभु से अपना मेल बना।
भावार्थ - भावार्थ- होता उस प्रभु को अपने साथ संगत करता है जो प्रभु प्रिय, अर्थात् द्वेष से शून्य तथा अमृत, विषयों के पीछे न मरनेवाले वासनाशून्य हृदय में निवास करते हैं।
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