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  • यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 44
    ऋषिः - सरस्वत्यृषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगतिजगती स्वरः - निषादः
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    दे॒वं ब॒र्हिर्वारि॑तीनां दे॒वमिन्द्रं॑ वयो॒धसं॑ दे॒वं दे॒वम॑वर्धयत्।क॒कुभा॒ छन्द॑सेन्द्रि॒यं यश॒ऽइन्द्रे॒ वयो॒ दध॑द् वसु॒वने॑ वसु॒धेय॑स्य वेतु॒ यज॑॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वम्। ब॒र्हिः। वारि॑तीनाम्। दे॒वम्। इन्द्र॑म्। व॒यो॒धस॒मिति॑ वयः॒ऽधस॑म्। दे॒वम्। दे॒वम्। अ॒व॒र्ध॒य॒त्। क॒कुभा॑। छन्द॑सा। इ॒न्द्रि॒यम्। यशः॑। इन्द्रे॑। वयः॑। दध॑त्। व॒सु॒वन॒ इति॑ वसु॒ऽवने॑। व॒सु॒धेय॒स्येति॑ वसु॒ऽधेय॑स्य। वे॒तु॒। यज॑ ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवम्बर्हिर्वारितीनान्देवमिन्द्रँवयोधसन्देवँदेवमवर्धयत् । ककुभा च्छन्दसेन्द्रियँयशऽइन्द्रे वयो दधद्वसुवने वसुधेयस्य वेतु यज ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवम्। बर्हिः। वारितीनाम्। देवम्। इन्द्रम्। वयोधसमिति वयःऽधसम्। देवम्। देवम्। अवर्धयत्। ककुभा। छन्दसा। इन्द्रियम्। यशः। इन्द्रे। वयः। दधत्। वसुवन इति वसुऽवने। वसुधेयस्येति वसुऽधेयस्य। वेतु। यज॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 28; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    १. (वारितीनाम्) = [वर-वरणीय प्रभु, इति गति] वरणीय प्रभु में गतिवालों का अर्थात्, प्रभु का ध्यान करनेवालों का जो (देवम्) = दिव्य गुणयुक्त (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय होता है, जोकि (देवम्) = दानादि की भावना से युक्त है, वह हृदय (देवम्) = दिव्य गुणयुक्त (वयोधसम्) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाले (देवम्) = दानशील (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को (अवर्द्धयत्) = बढ़ाता है। २. (ककुभा छन्दसा) = शिखर पर पहुँचने की प्रबल भावना के साथ (इन्द्रियम्) = प्रत्येक इन्द्रिय के सामर्थ्य को (यशः) = यश को (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (दधत्) = धारण करता हुआ, यह वासनाशून्य हृदय (वसुवने) = धन के सेवन में भी (वसुधेयस्य) = धन के आधारभूत प्रभु का (वेतु) = अपने में प्रादुर्भाव करे, अर्थात् इसके हृदय में सदा प्रभु का स्मरण बना रहे। ३. (यज) = हे जीव! तू यज्ञशील बन और उस प्रभु के साथ अपना मेल बना।

    भावार्थ - भावार्थ- वासनाशून्य हृदय हममें शिखर तक पहुँचने की भावना को धारण कराये और यह भावना हमें प्रभु तक ले जानेवाली हो।

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