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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1010
ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
आ꣢दी꣣म꣢श्वं꣣ न꣡ हेता꣢꣯र꣣म꣡शू꣢शुभन्न꣣मृ꣡ता꣢य । म꣢धो꣣ र꣡स꣢ꣳ सध꣣मा꣡दे꣢ ॥१०१०॥
स्वर सहित पद पाठआत् । ई꣣म् । अ꣡श्व꣢꣯म् । न । हे꣡ता꣢꣯रम् । अ꣡शू꣢꣯शुभन् । अ꣣मृ꣡ता꣢य । अ꣣ । मृ꣡ता꣢꣯य । म꣡धोः꣢꣯ । र꣡स꣢꣯म् । स꣣धमा꣡दे꣢ । स꣣ध । मा꣡दे꣢꣯ ॥१०१०॥
स्वर रहित मन्त्र
आदीमश्वं न हेतारमशूशुभन्नमृताय । मधो रसꣳ सधमादे ॥१०१०॥
स्वर रहित पद पाठ
आत् । ईम् । अश्वम् । न । हेतारम् । अशूशुभन् । अमृताय । अ । मृताय । मधोः । रसम् । सधमादे । सध । मादे ॥१०१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1010
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - नीरोगता व प्रभुदर्शन का आनन्द
पदार्थ -
(आत्) = अब (ईम्) = निश्चय से इस सोम को (अशूशुभन्) = इस शरीर में ही सुशोभित करते हैं। किस सोम को ? १. (अश्वं न हेतारम्) = घोड़े के समान क्रियाओं में प्रेरित करनेवाले को । जिस प्रकार खड़े रहने से घोड़े को चलना अधिक प्रिय है, उसी प्रकार सोम की रक्षा करनेवाले व्यक्ति को आलस्य व आराम की अपेक्षा क्रियाशीलता अधिक रुचिकर है। सोम उसे क्रियाओं में प्रेरित करता है । २. (मधोः रसम्) = यह सोम मधु का रस है। निघण्टु [१.१२] में 'मधु' जल का नाम है और यह जल ही शरीर में (रेतस्) = सोमरूप से रहते हैं [आप: रेतो भूत्वा – ऐ०] । ताण्ड्य ब्राह्मण [११.१०.३] में (अन्नं वै मधु) = अन्न को मधु कहा गया है । यह सोम इसी अन्न का रस-रुधिरादि के क्रम से सार अथवा रस है । इस अन्न के सारभूत सोम को शरीर में शोभित करने का प्रयत्न किया जाता है—१. (अमृताय) = अमरता के लिए । सोम की रक्षा से शरीर में किसी प्रकार के रोग उत्पन्न नहीं होते। असमय में मृत्यु नहीं होती और परिणामतः अमरता प्राप्त होती है । २. (सधमादे) = [सहमदने] इस मानवदेह में आनन्दमयकोश में उस प्रभु के साथ निवास करके आनन्द लेने के निमित्त इस सोम की रक्षा की जाती है। सोमरक्षा द्वारा हमें उस (सोम) = सम्पूर्ण जगत् के उत्पादक प्रभु का दर्शन होता है और हम प्रभु के सम्पर्क में एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते हैं ।
भावार्थ -
सोम को शरीर में ही सुरक्षित करने से १. जीवन क्रियाशील बना रहता है । २. नीरोगता के कारण अमरता का लाभ होता है तथा ३. प्रभु-दर्शन से आनन्द का अनुभव होता है । इस सोम का रक्षक 'जमदग्नि' बनता है, सदा जाठराग्नि के ठीक होने के कारण इसे रोग नहीं सताते और यह सब शक्तियों का ठीक परिपाक करनेवाला ‘भार्गव' होता है [भ्रस्ज पाके] ।