Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1021
ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
2

अ꣣भि꣢ व्र꣣ता꣡नि꣢ पवते पुना꣣नो꣢ दे꣣वो꣢ दे꣣वा꣢꣫न्त्स्वेन꣣ र꣡से꣢न पृ꣣ञ्च꣢न् । इ꣢न्दु꣣र्ध꣡र्मा꣢ण्यृतु꣣था꣡ वसा꣢꣯नो꣣ द꣢श꣣ क्षि꣡पो꣢ अव्यत꣣ सा꣢नौ꣣ अ꣡व्ये꣢ ॥१०२१॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । व्र꣣ता꣡नि꣢ । प꣣वते । पुनानः꣢ । दे꣣वः꣢ । दे꣣वा꣢न् । स्वे꣡न꣢꣯ । र꣡से꣢꣯न । पृ꣣ञ्च꣢न् । इ꣡न्दुः꣢꣯ । ध꣡र्मा꣢꣯णि । ऋ꣣तुथा꣢ । व꣡सा꣢꣯नः । द꣡श꣢꣯ । क्षि꣡पः꣢꣯ । अ꣡व्यत । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ ॥१०२१॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि व्रतानि पवते पुनानो देवो देवान्त्स्वेन रसेन पृञ्चन् । इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानौ अव्ये ॥१०२१॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । व्रतानि । पवते । पुनानः । देवः । देवान् । स्वेन । रसेन । पृञ्चन् । इन्दुः । धर्माणि । ऋतुथा । वसानः । दश । क्षिपः । अव्यत । सानौ । अव्ये ॥१०२१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1021
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 6; सूक्त » 5; मन्त्र » 3
Acknowledgment

पदार्थ -

१. मन्यु वासिष्ठ (व्रतानि अभिपवते) = व्रतों की ओर जाता है । 'यम-नियम' ही व्रत हैं । यह 'अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह तथा शौच-सन्तोष-तप-स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान' का पालन करता है । २. (पुनानः) = इन व्रतों के पालन द्वारा यह अपने जीवन को पवित्र करने के स्वभाववाला होता है । ३. (देवः) = अपने को व्रतों द्वारा निरन्तर पवित्र करता हुआ यह दिव्य गुणोंवाला बन जाता है। ४. (देवान् स्वेन रसेन पृञ्चन्) = यह इन दिव्य गुणों को अपने माधुर्य से सम्पृक्त करता है । वस्तुतः दिव्य गुण तभी तक दिव्य गुण रहते हैं जब तक उनके साथ माधुर्य का मेल है, सत्य तभी तक सत्य है जब तक वह अप्रिय नहीं । ५. दिव्य गुणों के साथ माधुर्य का मेल कर यह (इन्दुः) = अत्यन्त शक्तिशाली बन जाता । शान्तियुक्त शक्ति ही निर्माण कर पाती है, अत: यह 'मन्यु वासिष्ठ' ६. (धर्माणि `ऋतुथा वसानः) = समयानुसार धारणात्मक कर्मों को धारण करनेवाला होता है । ७. (दश क्षिपः अव्यत) = दसों इन्द्रियों को सदा सुरक्षित करता है । इन्द्रियों को वासनाओं के आकर्षणों से बचाकर उत्तम कर्मों में ही लगाये रखता है । ८. (सानो: अव्ये) = और सानु के रक्षण में उत्तम स्थान में पहुँच जाता है । 'सानु' का अर्थ शिखरप्रदेश है । शरीर में यह 'सहस्रारचक्र' है, जोकि मेरुदण्ड के शिखर पर विद्यमान है । यह 'मन्यु वाशिष्ठ' अपनी वृत्तियों को केन्द्रित करके । 

यहाँ स्थित होने का प्रयत्न करता है। यही प्राणों का मूर्धा में नियमन है। योगी इसी अभ्यास के द्वारा अन्त में ब्रह्मरन्ध्र से प्राणों को छोड़ता है। ऐसा अभ्यासी कभी भी विषयों से बद्ध नहीं होता । विषयों के बवण्डर इस शिखरप्रदेश तक पहुँचते ही नहीं ।

भावार्थ -

हम अभ्यास के द्वारा शिखर के सुरक्षित प्रदेश में स्थित होनेवाले हों । सब इन्द्रियों को सुरक्षित रक्खें, उन्हें आसुर आक्रमणों से बचाएँ ? ।
 

इस भाष्य को एडिट करें
Top