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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1030
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम -
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इ꣢न्द्र꣣मि꣡द्धरी꣢꣯ वह꣣तो꣡ऽप्र꣢तिधृष्टशवसम् । ऋ꣡षी꣢णाꣳ सुष्टु꣣ती꣡रुप꣢꣯ य꣣ज्ञं꣢ च꣣ मा꣡नु꣢षाणाम् ॥१०३०॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯म् । इत् । ह꣢꣯रीइ꣡ति꣢ । व꣣हतः । अ꣡प्र꣢꣯तिधृष्टशवसम् । अ꣡प्र꣢꣯तिधृष्ट । श꣣वसम् । ऋ꣡षी꣢꣯णाम् । सु꣣ष्टुतीः꣢ । सु꣣ । स्तुतीः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । य꣡ज्ञ꣢म् । च꣣ । मा꣡नु꣢꣯षाणाम् ॥१०३०॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रमिद्धरी वहतोऽप्रतिधृष्टशवसम् । ऋषीणाꣳ सुष्टुतीरुप यज्ञं च मानुषाणाम् ॥१०३०॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रम् । इत् । हरीइति । वहतः । अप्रतिधृष्टशवसम् । अप्रतिधृष्ट । शवसम् । ऋषीणाम् । सुष्टुतीः । सु । स्तुतीः । उप । यज्ञम् । च । मानुषाणाम् ॥१०३०॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1030
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 23; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

जब मनुष्य वासनाओं के साथ संग्राम करता है और प्रभुकृपा से, वासनाओं से पराजित नहीं होता तब वह 'अ-प्रति-धृष्ट-शवस्' कहलाता है - नहीं पराजित हुआ बल जिसका। इस (अप्रतिधृष्टशवसम्) = जो वासनाओं के साथ संग्राम में अपराजित बलवाला होता है, अर्थात् हारता नहीं, उस (इन्द्रम्) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुष को (हरी) = वे इन्द्रियाँ (इत्) = निश्चय से (उपवहतः) = समीप ले जाती हैं । किनके -

१. (ऋषीणां सुष्टुती: उप) = [ऋषिर्वेदः] वेद-प्रतिपादित प्रभु की स्तुतियों के (च) = तथा २. (मानुषाणाम्) = मानवहित में लगे हुओं के (यज्ञम्) = लोकसंग्रहात्मक श्रेष्ठतम कर्मों के समीप । जब मनुष्य वासना-संग्राम में विजयी होता है तब वह दो ही कार्य करता है – उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ तो वेदों के स्तोत्रों का ग्रहण करती हैं, अर्थात् निरन्तर ज्ञान प्राप्ति में लगी रहती हैं और उसकी कर्मेन्द्रियाँ मानव हितकारी यज्ञों में प्रवृत्त रहती हैं ।

भावार्थ -

हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान-प्राप्ति में लगें और कर्मेन्द्रियाँ यज्ञात्मक कर्मों में लगी रहें ।
 

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