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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1095
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
त्वे꣡ विश्वे꣢꣯ स꣣जो꣡ष꣢सो दे꣣वा꣡सः꣢ पी꣣ति꣡मा꣢शत । म꣡दे꣢षु सर्व꣣धा꣡ अ꣢सि ॥१०९५॥
स्वर सहित पद पाठत्वे꣡इति꣢ । वि꣡श्वे꣢꣯ । स꣣जो꣡ष꣢सः । स꣣ । जो꣡ष꣢꣯सः । दे꣣वा꣡सः꣢ । पी꣡ति꣢म् । आ꣣शत । म꣡दे꣢꣯षु । स꣣र्व꣢धाः । स꣣र्व । धाः꣢ । अ꣣सि ॥१०९५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वे विश्वे सजोषसो देवासः पीतिमाशत । मदेषु सर्वधा असि ॥१०९५॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वेइति । विश्वे । सजोषसः । स । जोषसः । देवासः । पीतिम् । आशत । मदेषु । सर्वधाः । सर्व । धाः । असि ॥१०९५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1095
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 7; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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विषय - प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहना
पदार्थ -
हे सोम! (सजोषसः) = समानरूप से मिलकर, प्रीतिपूर्वक कर्म करनेवाले [जुषी प्रीतिसेवनयोः] (विश्वे) = सब (देवास:) = देव लोग (त्वे) = [तव] तेरे (पीतिम् आशत) = पान को प्राप्त करते हैं, अर्थात् सोम की रक्षा के लिए शान्ति आवश्यक है। क्रोधी स्वभाव हमें सोमपान के योग्य नहीं बनाता। ब्रह्मचारी के लिए इसी दृष्टिकोण से क्रोधादि के परित्याग का विधान है । शान्तिपूर्वक प्रेम से कर्मों में लगे रहना ही सोमरक्षा का सर्वोत्तम साधन है। किसी भी प्रकार की उत्तेजना व आलस्य सोम विनाश का कारण बनता है—अतः ‘सजोषस्’ बनना- प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहना ही सोम को अपने में व्याप्त करने का साधन है ।
हे सोम! तू (मदेषु) = हर्षों में (सर्वधाः असि) = सबका धारण करनेवाला है। सोमरक्षा से हम उल्लासमय जीवनवाले होते हैं और उस उल्लास में सबका धारण करनेवाले बनते हैं।
भावार्थ -
हम सदा प्रीतिपूर्वक कार्यों में लगे रहकर सोम का पान करनेवाले हों ।
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