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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1142
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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ना꣡भिं꣢ य꣣ज्ञा꣢ना꣣ꣳ स꣡द꣢नꣳ रयी꣣णां꣢ म꣣हा꣡मा꣢हा꣣व꣢म꣣भि꣡ सं न꣢꣯वन्त । वै꣣श्वानर꣢ꣳ र꣣꣬थ्य꣢꣯मध्व꣣रा꣡णां꣡ य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ के꣣तुं꣡ ज꣢नयन्त दे꣣वाः꣢ ॥११४२॥

स्वर सहित पद पाठ

ना꣡भि꣢꣯म् । य꣣ज्ञा꣡ना꣢म् । स꣡द꣢꣯नम् । र꣣यीणा꣢म् । म꣣हा꣢म् । आ꣣हाव꣢म् । आ꣣ । हाव꣢म् । अ꣣भि꣢ । सम् । न꣣वन्त । वैश्वानर꣢म् । वै꣣श्व । नर꣢म् । र꣣थ्य꣢म् । अ꣣ध्वरा꣡णा꣢म् । य꣣ज्ञ꣡स्य꣢ । के꣣तु꣢म् । ज꣣नयन्त । देवाः꣢ ॥११४२॥


स्वर रहित मन्त्र

नाभिं यज्ञानाꣳ सदनꣳ रयीणां महामाहावमभि सं नवन्त । वैश्वानरꣳ रथ्यमध्वराणां यज्ञस्य केतुं जनयन्त देवाः ॥११४२॥


स्वर रहित पद पाठ

नाभिम् । यज्ञानाम् । सदनम् । रयीणाम् । महाम् । आहावम् । आ । हावम् । अभि । सम् । नवन्त । वैश्वानरम् । वैश्व । नरम् । रथ्यम् । अध्वराणाम् । यज्ञस्य । केतुम् । जनयन्त । देवाः ॥११४२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1142
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

(देवाः) = वे माता-पिता व आचार्यरूप देव (जनयन्त) = जन्म देते हैं । किसको ? 
१. (यज्ञानाम्) = देवपूजा, संगतीकरण व दानरूप धर्मों को (नाभिः) = [गह बन्धने] अपने में बाँधनेवाले को। जो अपने बड़ों का आदर करता है, सबके साथ मिलकर चलता है और दान की वृत्तिवाला है, ऐसे ब्रह्मचारी को ये जन्म देते हैं । २. (रयीणां सदनम्) = 'वीर्यं वै रयिः, पुष्टं वै रयिः ' इन शतपथवाक्यों के अनुसार जो शक्ति व पुष्ट शरीर का घर है । जिसका शरीर शक्ति-सम्पन्न और हृष्ट-पुष्ट है । ३. महाम्- [मह पूजायाम्] जो प्रभुपूजा की वृत्तिमाला है । ४. (आहावम्) =[आहाव= निपात] जैसे प्यासे पशु प्यास बुझाने के लिए निपान पर आते हैं, इसी प्रकार ज्ञान की पिपासा को शान्त करने के लिए, अभिनवन्ते - जिसके पास लोग आते हैं। ५. (वैश्वानरम्) = जो लोगों का हित करता है और सबको नेतृत्व देता है । ६. (अध्वराणां रथ्यम्) = हिंसारहित कर्मों के रथी को । जो अपने जीवन में ‘सर्वभूतहित' के कर्मों को ही करता है । ७. (यज्ञस्य केतुम्) = जो यज्ञों का प्रकाशक है। स्वयं यज्ञों को करता हुआ औरों में यज्ञिय भावना का प्रसार करता है।

इस प्रकार सात विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्ति का निर्माण माता-पिता व आचार्य करते हैं । इन सात विशेषताओं में ‘नाभिः यज्ञानाम्' का स्थान प्रथम और 'यज्ञस्य केतुम्' पर इनकी समाप्ति है । शेष सब विशेषताएँ इस यज्ञ में ही समाविष्ट हो जाती है । एवं, यज्ञ है तो सब विशेषताएँ हैं, यज्ञ नहीं है तो कुछ भी नहीं है । इसी बात को ध्यान में रखकर उपनिषद् ने लिखा 'पुरुषो वाव यज्ञः ' पुरुष तो है ही 'यज्ञ' । यज्ञमय जीवन ही श्रेष्ठ जीवन है ।

भावार्थ -

हम अपने जीवनों को यज्ञमय बनाएँ ।

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