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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1143
ऋषिः - यजत आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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प्र꣡ वो꣢ मि꣣त्रा꣡य꣢ गायत꣣ व꣡रु꣢णाय वि꣣पा꣢ गि꣣रा꣢ । म꣡हि꣢क्षत्रावृ꣣तं꣢ बृ꣣ह꣢त् ॥११४३॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । वः꣣ । मित्रा꣡य꣢ । मि꣣ । त्रा꣡य꣢꣯ । गा꣣यत । व꣡रु꣢꣯णाय । वि꣣पा꣢ । गि꣣रा꣢ । म꣡हि꣢꣯क्षत्रौ । म꣡हि꣢꣯ । क्ष꣣त्रौ । ऋत꣢म् । बृ꣣ह꣢त् ॥११४३॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र वो मित्राय गायत वरुणाय विपा गिरा । महिक्षत्रावृतं बृहत् ॥११४३॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । वः । मित्राय । मि । त्राय । गायत । वरुणाय । विपा । गिरा । महिक्षत्रौ । महि । क्षत्रौ । ऋतम् । बृहत् ॥११४३॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1143
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

वैदिक-साहित्य में ‘मित्रावरुणौ' शब्द प्राणापान के लिए प्रयुक्त होता है। इनकी साधना करके ही मनुष्य ‘मैत्रावरुणि वसिष्ठ' बन पाता है - सर्वोत्तम निवासवाला होता है और वशियों में श्रेष्ठ बनता है। ‘मित्र’ प्राण का नाम है 'वरुण' अपान का । मित्र=प्रमीते: त्रायते-रोगों से बचाता है । रोगों से होनेवाली मृत्यु को दूर करता है। शरीर में इसी से प्राणशक्ति का संचार होता है। साथ ही यह मनों में [मिद=स्नेह] पारस्परिक स्नेह की भावना को भरनेवाला है । इस स्नेह की भावना को भरकर यह हमंञ उस प्रभु के समीप पहुँचाता है। उस प्रभु से मेलवाला व्यक्ति ही ‘यजत' [संगतीकरणवाला] है। वरुण [वारयति] बुराइयों से दूर करनेवाला है । यह शरीर से मलों को दूर करता है तो मन से 'काम-क्रोध-लोभ' को दूर करके व्यक्ति को 'आत्रेय' बनाता है । यह 'यजत आत्रेय' कहता है कि हे मित्रो! (वः) = तुम्हारी (मित्राय) = प्राणशक्ति के लिए और (वरुणाय) = अपान शक्ति के लिए, (विपा) = प्रशंसात्मक (गिरा) = वाणी से (प्रगायत) = खूब गायन करो । इनके गुणों को हृदयों में अंकित करने का प्रयत्न करो। ये दोनों (महिक्षत्रौ) = तुम्हारे जीवनों को महनीय बनानेवाले हैं [महि=majestic], शक्तिशाली बनानेवाले हैं और क्षतों से — अक्रमणों से बचानेवाले हैं। इनकी साधना से न तो रोगों का आक्रमण होगा और न ही मानस विकारों का । ये (ऋतम्) = तुम्हारे जीवनों को ठीक करनेवाले हैं [ऋत=right] । इनकी साधना का परिणाम यह होगा कि हमारे जीवन में सब कार्य ठीक समय पर व ठीक स्थान पर होंगे । (बृहत्) = ये तुम्हारी वृद्धि का कारण हैं। इनसे ही सारा शारीरिक व मानसिक विकास होता है ।

भावार्थ -

हम प्राणापान की साधना करके उत्तम व वृद्धिशील जीवनवाले बनें ।

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