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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1144
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
स꣣म्रा꣢जा꣣ या꣢ घृ꣣त꣡यो꣢नी मि꣣त्र꣢श्चो꣣भा꣡ वरु꣢꣯णश्च । दे꣣वा꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ प्रश꣣स्ता꣢ ॥११४४॥
स्वर सहित पद पाठस꣣म्रा꣡जा꣢ । स꣣म् । रा꣡जा꣢꣯ । या । घृ꣣त꣡यो꣢नी । घृ꣣त꣢ । यो꣣नी꣢इति । मि꣣त्रः꣢ । मि꣢ । त्रः꣣ । च । उभा꣢ । व꣡रु꣢꣯णः । च꣣ । देवा꣢ । दे꣣वे꣡षु꣢ । प्र꣣शस्ता꣢ । प्र꣣ । शस्ता꣢ ॥११४४॥
स्वर रहित मन्त्र
सम्राजा या घृतयोनी मित्रश्चोभा वरुणश्च । देवा देवेषु प्रशस्ता ॥११४४॥
स्वर रहित पद पाठ
सम्राजा । सम् । राजा । या । घृतयोनी । घृत । योनीइति । मित्रः । मि । त्रः । च । उभा । वरुणः । च । देवा । देवेषु । प्रशस्ता । प्र । शस्ता ॥११४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1144
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - देवताओं में प्रशस्त
पदार्थ -
ये प्राणापान (सम्राजा) = हमारे जीवनों को बड़ा नियमित [well regulated] बनानेवाले हैं, हमारे शरीरों को तेजस्वी व दीप्त [राज्- दीप्त] करनेवाले हैं । (या) = जो ये (मित्रः च वरुणः च) = प्राण और अपान हैं (उभा) = दोनों (घृतयोनी) = [घृ– १. क्षरण, २. दीप्ति] मानस मलों को दूर करके हमारे मनों को दीप्त बनानेवाले हैं। हमारे मन राग-द्वेषादि के मलों से रहित होकर पवित्रता व प्रकाश से चमक उठते हैं। ये (देवा) = हमें नीरोगता देनेवाले हैं [देव:-दानात्] तथा हमारे मनों को द्योतित करनेवाले हैं [देव: द्योतनात् ] । ये प्राणापान शरीर में रहनेवाले देवेषु- सब देवों में [सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते] प्रशस्त व प्रशंसनीय हैं।
भावार्थ -
प्राणापान ही सब देवताओं में श्रेष्ठ हैं। इनकी साधना ही हमें तेजस्वी शरीरवाला व द्योतित हृदयवाला बनाएगी ।
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