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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1145
ऋषिः - यजत आत्रेयः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ता꣡ नः꣢ शक्तं꣣ पा꣡र्थि꣢वस्य म꣣हो꣡ रा꣣यो꣢ दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢ वां क्ष꣣त्रं꣢ दे꣣वे꣡षु꣢ ॥११४५॥
स्वर सहित पद पाठता । नः꣣ । शक्तम् । पा꣡र्थि꣢꣯वस्य । म꣣हः꣢ । रा꣣यः꣢ । दि꣣व्य꣡स्य꣢ । म꣡हि꣢꣯ । वा꣣म् । क्षत्र꣢म् । दे꣣वे꣡षु꣢ ॥११४५॥
स्वर रहित मन्त्र
ता नः शक्तं पार्थिवस्य महो रायो दिव्यस्य । महि वां क्षत्रं देवेषु ॥११४५॥
स्वर रहित पद पाठ
ता । नः । शक्तम् । पार्थिवस्य । महः । रायः । दिव्यस्य । महि । वाम् । क्षत्रम् । देवेषु ॥११४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1145
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 8; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - रक्षक
पदार्थ -
(ता) = ये प्राण और अपान (न:) = हमें (पार्थिवस्य रायः) = पार्थिव धन का, अर्थात् शरीर की नीरोगता का तथा (महः दिव्यस्य रायः) = महनीय दिव्य धन का, अर्थात् उत्तम हृदय के ज्ञान व प्रकाश का (शक्तम्) = दान करने में समर्थ हैं। ये प्राणपान हमें पार्थिव व दिव्य धन देकर हमारे शरीरों को स्वस्थ व मन को प्रकाशमय बनाकर हमें शक्तिशाली व योग्य बनाते हैं ।
हे प्राणापानो! (वाम्) = आप दोनों का (देवेषु) = शरीरस्थ सभी देवताओं में (क्षत्रम्) आक्रमण से रक्षण (महि) = सचमुच महनीय है। प्राणापान ही वस्तुतः शरीर के सब देवताओं को आसुर आक्रमण से बचाते हैं, शरीर पर रोग आक्रमण नहीं कर पाते और मन में वासनाएँ प्रविष्ट नहीं हो पातीं । अन्य सब देव जब सो जाते हैं, तब ये प्राणापान जागकर पहरा देते हैं । यह शरीर ('देवानां पू:') = देवनगरी है। ये प्राणापान इस देवनगरी के रक्षक हैं ।
भावार्थ -
प्राणापान देवताओं की नगरी के रक्षक हैं ।
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