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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1177
ऋषिः - प्रतर्दनो दैवोदासिः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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च꣣मूष꣢च्छ्ये꣣नः꣡ श꣢कु꣣नो꣢ वि꣣भृ꣡त्वा꣢ गोवि꣣न्दु꣢र्द्र꣣प्स꣡ आयु꣢꣯धानि बि꣡भ्र꣢त् । अ꣣पा꣢मू꣣र्मि꣡ꣳ सच꣢꣯मानः समु꣣द्रं꣢ तु꣣री꣢यं꣣ धा꣡म꣢ महि꣣षो꣡ वि꣢वक्ति ॥११७७॥

स्वर सहित पद पाठ

च꣣मूष꣢त् । च꣣मू । स꣢त् । श्ये꣣नः꣢ । श꣣कुनः꣢ । वि꣣भृ꣡त्वा꣢ । वि꣣ । भृ꣡त्वा꣢꣯ । गो꣣विन्दुः꣢ । गो । विन्दुः꣢ । द्र꣣प्सः꣢ । आ꣡यु꣢꣯धानि । बि꣡भ्र꣢꣯त् । अ꣣पा꣢म् । ऊ꣣र्मि꣢म् । स꣡च꣢꣯मानः । स꣣मु꣢द्रम् । स꣣म् । उद्र꣢म् । तु꣣री꣡य꣢म् । धा꣡म꣢꣯ । म꣣हिषः꣢ । वि꣣वक्ति ॥११७७॥


स्वर रहित मन्त्र

चमूषच्छ्येनः शकुनो विभृत्वा गोविन्दुर्द्रप्स आयुधानि बिभ्रत् । अपामूर्मिꣳ सचमानः समुद्रं तुरीयं धाम महिषो विवक्ति ॥११७७॥


स्वर रहित पद पाठ

चमूषत् । चमू । सत् । श्येनः । शकुनः । विभृत्वा । वि । भृत्वा । गोविन्दुः । गो । विन्दुः । द्रप्सः । आयुधानि । बिभ्रत् । अपाम् । ऊर्मिम् । सचमानः । समुद्रम् । सम् । उद्रम् । तुरीयम् । धाम । महिषः । विवक्ति ॥११७७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1177
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

१. (चमूषत्) = [चम्वोः सीदति, चम्वोः द्यावापृथिव्योः, द्यावा = मस्तिष्क, पृथिवी=शरीर] जो सदा द्यावापृथिवी में निषण्ण होता है - मस्तिष्क व शरीर का ध्यान करता है, अर्थात् ज्ञान को बढ़ाने का प्रयत्न करता है और शरीर के स्वास्थ्य का पूर्ण ध्यान करता है ।

२. (श्येनः) = शंसनीय गतिवाला होता है – सदा उत्तम कर्मों को करता है ।

३. (शकुनः) = शक्तिशाली बनता है ।

४. (विभृत्वा) = विशिष्ट भरण-पोषण के कार्यों में लगता है–निर्माणात्मक कार्यो में प्रवृत होता है ।

५. (गोविन्दुः) = [विद् लाभे] सदा ज्ञान की वाणियों को प्राप्त करने के स्वभाववाला होता है। 

६. (द्रप्सः) = [दृप हर्षमोहनयोः] सदा प्रसन्न और इसी प्रसन्नता से औरों को मोहित [आकृष्ट] करनेवाला होता है ।

७. (आयुधानि बिभ्रत्) = प्रभु से दिये गये ‘इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' रूप आयुधों [Instruments] को उचित स्थिति में धारण करनेवाला होता है।

८. (अपाम् ऊर्मिम् सचमानः) = [आप:-रेतः] शक्तिकणों की लहरों का सेवन करता हुआ, अर्थात् उमड़ते हुए सोम-तरंगो को अपने ही अन्दर धारण करता हुआ ।

९. परिणामतः (समुद्रम्) = ज्ञान के समुद्र को (सचमानः) = सेवन करता हुआ ।

१०. (महिष:) = यह प्रभु का पुजारी [मह्=पूजायाम्]।

११. (तुरीयं धाम) = उस तुरीय धाम का विवक्ति- विशेषरूप से प्रतिपादन करता है । जागरित, स्वप्न, सुषुप्ति से ऊपर उस चतुर्थ अव्यवहार्य प्रपञ्चोपशम 'शान्त, शिव, अद्वैत' स्थिति का आभास प्रकट करता है। उसके जीवन से इस स्थिति का आभास मिलता है । यह प्रभु से अभिन्न-सा हो जाता है ।

भावार्थ -

हमारा जीवन 'तुरीय धाम' को व्यक्त करनेवाला हो ।

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