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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 119
ऋषिः - श्रुतकक्षः आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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त꣡मिन्द्रं꣢꣯ वाजयामसि म꣣हे꣢ वृ꣣त्रा꣢य꣣ ह꣡न्त꣢वे । स꣡ वृषा꣢꣯ वृष꣣भो꣡ भु꣢वत् ॥११९॥
स्वर सहित पद पाठत꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । वा꣣जयामसि । महे꣢ । वृ꣣त्रा꣡य꣢ । ह꣡न्त꣢꣯वे । सः । वृ꣡षा꣢꣯ । वृ꣣षभः꣢ । भु꣣वत् ॥११९॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिन्द्रं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत् ॥११९॥
स्वर रहित पद पाठ
तम् । इन्द्रम् । वाजयामसि । महे । वृत्राय । हन्तवे । सः । वृषा । वृषभः । भुवत् ॥११९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 119
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1;
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विषय - आत्मिक शक्ति के चार लाभ
पदार्थ -
पूर्व मन्त्र में श्रुतकक्ष ने कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व इन्द्र की तेजस्विता के लिए प्रभु का गायन किया था। वह श्रुतकक्ष ही इस मन्त्र में कहता है कि इन्द्रियों को शक्तिशाली बनाने की बजाय हम (तम्) = उस (इन्द्रम्) = आत्मा को ही (वाजयामसि) = शक्तिशाली बनाते हैं। किसलिए? (महे) = महत्त्व प्राप्ति के लिए । इन्द्रियों की शक्ति बढ़ा लेने से किसी ने इस लोक में महिमा प्राप्त नहीं की। वस्तुतः बाह्य साम्राज्य के स्थान में अन्तः साम्राज्य को बढ़ाना ही श्रेयस्कर है। हम इस अन्तः साम्राज्य में आत्मिक शक्ति को बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील होते हैं, (वृत्राय हन्तवे) = ज्ञान को आवृत करनेवाले इस कामरूप वृत्र के विनाश के लिए । इन्द्रियों की शक्ति बढ़ाने से वासनाओं को कुछ बढ़ावा मिलता है जबकि आत्मा की तेजस्विता इन वासनाओं को दग्ध कर देती है।
आत्मा की शक्ति बढ़ाकर (स:) = वह श्रुतकक्ष (वृषा) = शक्तिशाली (भुवत्) = बनता है। स्वयं शक्तिशाली होकर वह (वृषभ:) = औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला बनता है। इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ानेवाला व्यक्ति निजी भोगों को बढ़ाने के मार्ग पर चलता है, औरों को हानि पहुँचाकर भी वह अपने को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील होता है।
भावार्थ -
हम आत्मिक तेज प्राप्त करें। वह हमें महत्त्व प्राप्त कराएगा, कामादि के विध्वंस के योग्य बनाएगा, इस प्रकार शक्तिसम्पन्न होकर हम लोकहित करनेवाले बनेंगे।
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