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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1213
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
6
अ꣣पघ्न꣡न्प꣢वते꣣ मृ꣢꣫धोऽप꣣ सो꣢मो꣣ अ꣡रा꣢व्णः । ग꣢च्छ꣣न्नि꣡न्द्र꣢स्य निष्कृ꣣त꣢म् ॥१२१३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पघ्न꣢न् । अ꣣प । घ्न꣢न् । प꣣वते । मृ꣡धः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । सो꣡मः꣢꣯ । अ꣡रा꣢꣯व्णः । अ । रा꣣व्णः । ग꣡च्छ꣢꣯न् । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नि꣣ष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣣म् ॥१२१३॥
स्वर रहित मन्त्र
अपघ्नन्पवते मृधोऽप सोमो अराव्णः । गच्छन्निन्द्रस्य निष्कृतम् ॥१२१३॥
स्वर रहित पद पाठ
अपघ्नन् । अप । घ्नन् । पवते । मृधः । अप । सोमः । अराव्णः । अ । राव्णः । गच्छन् । इन्द्रस्य । निष्कृतम् । निः । कृतम् ॥१२१३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1213
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 5; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
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विषय - 'मृध्+अराव्ण' से दूर ‘
पदार्थ -
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘अमहीयु आङ्गिरसः' है। यह पार्थिव कामनाओं से ऊपर उठा हुआ शक्तिशाली पुरुष है। यह (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (निष्कृतम्) = संस्कृत स्थान को – पवित्र धाम को (गच्छन्) = जाने के हेतू से १. (मृध:) = हमारी हिंसा करनेवाले ‘काम-क्रोध-लोभ' को (अपघ्नन्) = दूर नष्ट करता हुआ (पवते) = गति करता है - अपनी जीवन-यात्रा में चलता है । २. (सोमः) = यह सौम्य स्वभाववाला होता हुआ (अराव्णः) = न देने की वृत्ति को (अप) = अपने से दूर रखता है। इस प्रकार ‘काम-क्रोध-लोभ' से ऊपर उठा हुआ यह सचमुच 'अमहीयु' बनता है। पार्थिव भोगों में न फँसने के कारण ही शक्तिशाली भी बना रहता है ।
भावार्थ -
अ-मही- यु पुरुष 'कामादि हिंसक वृतियों से तथा लोभ से दूर रहकर प्रभु को प्राप्त करता है ।
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