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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1224
ऋषिः - सुकक्ष आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
गि꣣रा꣢꣫ वज्रो꣣ न꣡ सम्भृ꣢꣯तः꣣ स꣡ब꣢लो꣣ अ꣡न꣢पच्युतः । व꣣व꣢क्ष उ꣣ग्रो꣡ अस्तृ꣢꣯तः ॥१२२४॥
स्वर सहित पद पाठगि꣣रा꣢ । व꣡ज्रः꣢꣯ । न । स꣡म्भृ꣢꣯तः । सम् । भृ꣣तः । स꣡ब꣢꣯लः । स । ब꣣लः । अ꣡न꣢꣯पच्युतः । अन् । अ꣣पच्युतः । ववक्षे꣢ । उ꣣ग्रः꣢ । अ꣡स्तृ꣢꣯तः । अ । स्तृ꣣तः ॥१२२४॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरा वज्रो न सम्भृतः सबलो अनपच्युतः । ववक्ष उग्रो अस्तृतः ॥१२२४॥
स्वर रहित पद पाठ
गिरा । वज्रः । न । सम्भृतः । सम् । भृतः । सबलः । स । बलः । अनपच्युतः । अन् । अपच्युतः । ववक्षे । उग्रः । अस्तृतः । अ । स्तृतः ॥१२२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1224
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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विषय - वेदवाणी के द्वारा
पदार्थ -
प्रत्यङ्ग में रसवाला (गिरा) = वेदवाणी के द्वारा १. (वज्रो न) = वज्र की भाँति बनता है। अपने आहार - विहार को वेदवाणी के अनुकूल करता हुआ दृढ़ शरीरवाला होता है । २. (संभृतः) = बड़े उत्तम ढङ्ग से अपनी इन्द्रियों का भरण-पोषण करता है ३. (सबल:) = मानस बल के लिए होता है, अतएव ४. - (अनपच्युतः) = अपने कर्त्तव्य पथ से भ्रष्ट नहीं किया जा सकता । स्तुति - निन्दा, धन की प्राप्ति व हानि व जीवन-मृत्यु का भय इसे न्याय्य मार्ग से विचलित नहीं कर पाता, ५. उग्र:=[High, noble] यह सदा उदात्त स्वभाववाला बनता है ६. और अस्तृत:-अहिंसित व अजेय बनता हुआ ववक्षे=उन्नति-पथ पर आगे और आगे बढ़ता है ।
भावार्थ -
वेदवाणी के अनुकूल चलने से १. शरीर वज्र-तुल्य बनता है २. इन्द्रियाँ शक्तिसंभृत होती हैं ३. मन सबल तथा अविचलित होता है ४. मनुष्य उदात्त व अजेय बनकर उन्नत होता चलता है।