Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 1227
ऋषिः - उचथ्य आङ्गिरसः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
4

दि꣣वः꣢ पी꣣यू꣡ष꣢मुत्त꣣म꣢꣫ꣳ सोम꣣मि꣡न्द्रा꣢य व꣣ज्रि꣡णे꣢ । सु꣣नो꣢ता꣣ म꣡धु꣢मत्तमम् ॥१२२७॥

स्वर सहित पद पाठ

दि꣣वः꣢ । पी꣣यू꣡ष꣢म् । उ꣣त्तम꣢म् । सो꣡म꣢꣯म् । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । व꣣ज्रि꣡णे꣢ । सु꣣नो꣡त꣢ । म꣡धु꣢꣯मत्तमम् ॥१२२७॥


स्वर रहित मन्त्र

दिवः पीयूषमुत्तमꣳ सोममिन्द्राय वज्रिणे । सुनोता मधुमत्तमम् ॥१२२७॥


स्वर रहित पद पाठ

दिवः । पीयूषम् । उत्तमम् । सोमम् । इन्द्राय । वज्रिणे । सुनोत । मधुमत्तमम् ॥१२२७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 1227
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 9; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
Acknowledgment

पदार्थ -

(सोमम्) = सोम को (सुनोत) = अपने अन्दर अभिषुत करो - उत्पन्न करो, जो सोमः – १. (दिवः पीयूषम्) = स्वर्ग का अमृत है। प्रसिद्धि है कि स्वर्गलोक में रहनेवाले देव अमृत का पान करते हैं । अमृतपान से ही वे अमर हैं— मृत्यु से ऊपर हैं। शरीर में उत्पन्न होनेवाला यह सोम ही अमृत हैइसका पान यही है कि इसे शरीर में ही व्याप्त करना । इसी का परिणाम स्वर्ग में निवास होता है। जीवन नीरोग रह, सुखी बनता है और मनुष्य रोगों से असमय में ही मर नहीं जाता । २. (उत्तमम्) = सोम उत्तम है—उत्+तम। मनुष्य को अधिक से अधिक उत्कर्ष तक ले जानेवाला है। इसकी रक्षा से जहाँ शरीर नीरोग और सबल बनता है, वहाँ बुद्धि सूक्ष्म होकर ज्ञान भी बहुत विशाल हो जाता है। ३. (मधुमत्तमम्) = यह सोम मन को पवित्र और राग-द्वेषादि से रहित करके जीवन को बड़े माधुर्यवाला बना देता है ।

इस सोम को शरीर में इसलिए उत्पन्न करो कि ४. इन्द्राय यह आत्मा की शक्ति के विकास के लिए होता है। जीवात्मा को इन्द्रियों पर प्रभुत्ववाला बनाता है और इस प्रकार वह सचमुच ‘इन्द्र' बनता है ५. सोम को इसलिए भी उत्पन्न करो कि वज्रिणे = यह हमारे शरीर को वज्र-तुल्य बनाए। सोम शरीर को नीरोग व दृढ़ बनाता है।

भावार्थ -

सोम स्वर्ग का अमृत है— सुरक्षित होकर यह हमारे जीवन को उत्तम बनाता है।

इस भाष्य को एडिट करें
Top