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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1263
ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः स देवरातः कृत्रिमो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ए꣣ष꣢꣫ दिवं꣣ व्या꣡स꣢रत्ति꣣रो꣢꣫ रजा꣣ꣳस्य꣡स्तृ꣢तः । प꣡व꣢मानः स्वध्व꣣रः꣢ ॥१२६३॥
स्वर सहित पद पाठए꣣षः꣢ । दि꣡व꣢꣯म् । व्या꣡स꣢꣯रत् । वि꣣ । आ꣡स꣢꣯रत् । ति꣣रः꣢ । र꣡जा꣢꣯ꣳसि । अ꣡स्तृ꣢꣯तः । अ । स्तृ꣣तः । प꣡व꣢꣯मानः । स्व꣣ध्वरः꣢ । सु꣣ । अध्वरः꣢ ॥१२६३॥
स्वर रहित मन्त्र
एष दिवं व्यासरत्तिरो रजाꣳस्यस्तृतः । पवमानः स्वध्वरः ॥१२६३॥
स्वर रहित पद पाठ
एषः । दिवम् । व्यासरत् । वि । आसरत् । तिरः । रजाꣳसि । अस्तृतः । अ । स्तृतः । पवमानः । स्वध्वरः । सु । अध्वरः ॥१२६३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1263
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 10; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 8
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विषय - प्रभु सत्य में अवस्थित को प्राप्त होते हैं
पदार्थ -
(एषः) = यह प्रभु (दिवम्) = सत्त्वगुण में अवस्थित प्रकाशमय जीवनवाले को (व्यासरत्) = विशेषरूप से प्राप्त होते हैं। सर्वव्यापकता के नाते प्रभु सर्वत्र हैं ही, परन्तु उनका प्रकाश सात्त्विक हृदय में होता है। प्रभु अपने प्रकाश से सात्त्विक पुरुष के हृदय में विद्यमान (रजांसि) = [रजः = रात्रि – नि० १.७.१२] रात्रि के समान अन्धकारों को (तिर:) = दूर कर देते हैं, परिणामतः यह भक्त १. (अ-स्तृतः) = अहिंसित होता है। यह वासनाओं से आक्रान्त नहीं होता । २. (पवमानः) = यह अपने जीवन को पवित्र करनेवाला होता है, ३. और (स्वध्वरः) = उत्तम अध्वरमय जीवन को प्राप्त करता है – इसका जीवन हिंसाशून्य कर्मों से परिपूर्ण रहता है ।
भावार्थ -
हम सात्त्विक बनें, जिससे हमें प्रभु का प्रकाश प्राप्त हो और हमारा जीवन वासनाओं से अनाक्रान्त, पवित्र व हिंसाशून्य कर्मों से परिपूर्ण हो ।
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